अनजानी रहस्यमयी धरोहर मूर्तियों एवं पर्यटन का गांव छिपछिपी –
धरोहर एवं पर्यटन अंक -- 9, पर्यावरण व धरोहर चिन्तक - बीरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

“पुरानी स्मृतियों में कभी-कभी ऐसी घटनाएं जुड़ जाती हैं जो अकल्पनीय लगती है नाहर सिंह ने पिता के स्मृतियों के बारे मे हमें बताया कि इन्ही मूर्तियों में एक मूर्ति संभवत चलती थी, जो पीपल घोड़ा पहाड़ पर गाय चराते समय पिता को दिखाई पड़ी. पिता धीर साय ने सोचा कि मेरे गाँव की यह मूर्ति यहाँ कैसे पहुंची ,किंतु कुछ दिनों बाद गाय भैंस चराते हुए पिता ने नारायणपुर के लोटा जंगल के पास उसे देखा और बाद में गड़र पहाड़ एवं झीमर नाला के पास वह अंतिम रूप से दिखाई पड़ी थी जो बाद में यह कहां गई. आज तक किसी को पता नहीं”
.
राजा रानी की कहानी से प्रारंभ ग्राम्यांचलों का इतिहास आज भी गांव में जीवित है. जहां कहीं भी कोई प्राचीन मूर्तियां, गढ़ी या भग्न मंदिर के अवशेष जंगल – पहाड़ों के बीच मिल जाए तब कोई ना कोई कहानी उससे जुड़ी हुई जरूर मिल जाएगी. ऐसी ही एक कहानी जिसके पन्नों में कुछ जिज्ञासा पूर्ण रहस्यमयी जानकारी के साथ सैकड़ो वर्ष पुरानी मूर्तियों का समूह ग्राम छिपछिपी के मूरतपारा में मिलता है.
मनेन्द्रगढ़- चिरमिरी- भरतपुर जिले के मनेन्द्रगढ़ से लेदरी- मरवाही रोड पर 16 किलोमीटर दूरी पर भौता गांव के तिराहे पर पूर्व दिशा में मुड़ने के बाद आगे 2 किलोमीटर रोड में चलने पर छिपछिपी गांव की सीमा प्रारंभ हो जाती है. तत्कालीन समय में घनघोर जंगल के बीच बसे गांव में सीधी सिंगरौली क्षेत्र से गोंड़ संस्कृति के संवाहक बनकर अपने पशुपालन से जुड़े रोजी-रोटी के जुगाड़ में स्वर्गीय धीर सिंह इस गांव में सबसे पहले आए थे. पहाड़ों की उँची जमीन पर गाय भैंस के पशुपालन करने वाले धीर सिंह ने समतल जमीन देखकर यहां पड़ाव डाल दिया. बातचीत के बीच उनके पुत्र नाहर सिंह ने बताया कि उस समय झीमर नाला से लेकर खडगवाँ तक के वन क्षेत्र में अपने पिता के पशुओं को चराने की कहानी कहते हैं. इस गांव के किनारे बहती हसदो नदी का चौड़ा पाट बारिश में जब अपनी श्वेत जलधारा की लहरों के साथ पत्थरों से टकराती तब उसके थपेड़ों की आवाज़ 2 किलो.मीटर दूर तक गांव में सुनाई पड़ती थी. संभवत इसी हस्दो नदी के आकर्षण ने इन गाय भैंस चराने वाले पशुपालकों को यहीं रुक जाने के लिए बाध्य कर दिया.
हसदो के किनारे बसे छिपछिपी गांव के मूरतपारा में जब हम पहुंचे तब गांव वालों की एक भीड़ ने अपनी उपस्थिति के साथ हमारा स्वागत कर मनोबल बढ़ाया. गांव के पूर्व सरपंच से जानकारी मिली कि यह मूर्ति यहां कैसे आई कौन यहां कर लाकर रखा इसकी जानकारी किसी को नहीं है. पुरखों को भी नहीं मालूम कि यहां यह मूर्तियां कहां से आई. गांव से बाहर का इलाका होने के कारण जब ग्रामवासी यहां बस गए तब इस बस्ती का नाम मूर्तियों के बाड़ होने के कारण मूरतपारा रख दिया गया. सावन भादो के भारी बारीश पानी में आसपास कीचड़ हो जाने तथा पानी ज्यादा बरसने पर मूर्तियां भी इधर-उधर गिर जाती थी. वर्ष भर में ग्राम देवता के मंदिर की तरह इसकी भी साफ-सफाई गांव वाले कर देते हैं. क्योंकि माघी पूर्णिमा पर यहाँ मेला की तैयारियां प्रारंभ हो जाती हैं. पेड़ों की छाया में रखे यहाँ मूर्तियो के कई हिस्से टूट चुके हैं. भग्न मूर्तियों के बारे में जानकारी लेने पर पता चला कि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक कई मूर्तियां अच्छी अवस्था में थी लेकिन वर्तमान में पूरी स्वस्थ मूर्ति एक भी नहीं है. मुख्य मूर्ति जो लगभग चार फुट ऊंची है उसके हाथों में शंख, कमल एवं चक्र की उपस्थिति भगवान विष्णु की मूर्ति का अभ्यास करती है. जिसके किनारे के हिस्से में बने नारद मुनि अपनी वीणा के साथ तथा मां सरस्वती अपनी वीणा के साथ दिखाई पड़ती है. पुरानी स्मृतियों में कभी-कभी ऐसी घटनाएं जुड़ जाती हैं जो अकल्पनीय लगती है नाहर सिंह ने पिता के स्मृतियों के बारे मे हमें बताया कि इन्ही मूर्तियों में एक मूर्ति संभवत चलती थी, जो पीपल घोड़ा पहाड़ पर गाय चराते समय पिता को दिखाई पड़ी. पिता धीर साय ने सोचा कि मेरे गाँव की यह मूर्ति यहाँ कैसे पहुंची ,किंतु कुछ दिनों बाद गाय भैंस चराते हुए पिता ने नारायणपुर के लोटा जंगल के पास उसे देखा और बाद में गड़र पहाड़ एवं झीमर नाला के पास वह अंतिम रूप से दिखाई पड़ी थी जो बाद में यह कहां गई. आज तक किसी को पता नहीं. यह आसपास के गांव वालों को भी पता नहीं चला. इस तरह पत्थरों की चलने की घटनाओं की अटकलें जिज्ञासा और रहस्य के साथ-साथ चोरी की घटनाओं की ओर भी इंगित करती है. लेकिन बुजुर्गों के कथनानुसार वह मूर्ति इतनी भारी थी कि चोरी करने वालों के द्वारा ले जाना संभव नहीं था. संभावनाओं में जो भी हो लेकिन यह तो तय है कि वह एक प्रसिद्ध मूर्ति थी, जो आज से कई वर्ष पहले यहां से कहीं चली गई.
किवदंतियों में इस नगर में कोलराजाओं को हराकर कोरिया राज्य पर कब्जा करने वाले राजा धारामल शाह के सिपाही यहां युद्ध के बाद पड़ाव डाला करते थे. दूसरी भाषा में यह जंगलों के बीच सैनिकों के छिपने का एक अच्छा स्थल था. इस कारण इस गांव का नाम छिपछिपी पड़ा. मूर्ति समूह की मुख्य मूर्ति का पत्थर चिकनी कठोर पत्थर से बनी कलाकृति है जो सैकड़ो वर्ष पुरानी होने के कारण इसे प्राचीन धरोहरों में शामिल करती है. सैकड़ो वर्ष पुरानी यह मूर्ति आज शासन की देखभाल एवं पुरातत्व वेत्ताओं की नजर से अनदेखी होने के कारण समाप्ति की कगार पर है. यहां हसदो नदी के तट पर महामाया मंदिर के पीछे सैकड़ो साल पुराने कुछ चट्टान पहाड़ी के ऊपर पड़े हुए थे जिन्हें आपस में तत्कालीन समय में लोहे की पट्टियों से जोड़ा गया था. इस गढ़ी के पत्थरों को आपस में जोड़ने के लिए उपयोग की जानेवाली लोहे की पट्टी के लिए पत्थरों में प्लेट के बराबर नाली काटकर पत्थरों को बराबर बराबर जोड़ा गया था. जो उस समय के पत्थरों को जोड़ने की तकनीक का उदाहरण था. आज भी कुछ घरों में उखाड़ कर निकाली गई यह पट्टियां मिल जाएगी. यह पट्टियां ढलवां लोहे से बनती थी ताकि इनमें जंग ना लगे. इस तरह के निर्माण के अंश कई प्राचीन कहानियां के वे अनजान पन्ने हैं जिन्हें अब पढ़ना संभव नहीं है. ग्रामीणों की अज्ञानता एवं पुरातत्ववेत्ताओं की अनदेखी के कारण इस पहेली के सुलझने की संभावनाएं अब नजर नहीं आती किंतु अभी भी यदि इसे एक शोध परक कार्य के रूप में ढूंढा जाए तब हसदो नदी के किनारे के बसे नगरीय इतिहास के कई अनजान पन्नों के कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ मिल सकती हैं. वर्तमान में इस स्थान पर अब गांव वालों के द्वारा कुछ पहाड़ियों को तोड़कर खेत बना दिया गया है लेकिन इसके बावजूद भी यदि खोज की जाए तब इसके रहस्यमय पन्नो की इबारतें आसपास के क्षेत्र में मिल सकती हैं.
छिपछिपी गांव के हसदो नदी के अप्रतिभ सौंदर्य के साथ चौड़ा पाट , जहां महामाया देवी का उपासना स्थल अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ हिलोरे लेता है वही गाँव वालों के प्रयास से सैकड़ो वर्ष पुरानी यहीं पड़ी महामाया मूर्ति को एक मंदिर बनाकर 25 जून 1996 को संरक्षित कर दिया गया. संभवत यह महामाया देवी प्रतिमा इस गढ़ी क्षेत्र में निवास करने वाले निवासियों की आराध्य देवी रही हो. माघी पूर्णिमा को इस महामाया मंदिर में पूजा अर्चना के साथ आसपास के गांव के हजारों श्रद्धालुओं का जमावड़ा होता है औरदेवी की आस्था इसे एक मेले के स्वरूप का आकर्षण प्रदान करती है.
इस महामाया मंदिर के किनारे से हसदो नदी लगभग 200 मीटर गहराई पर बहती है. नदी के बहाव स्थल तक पहुंचने के लिए पंचायत द्वारा सीढ़ीयों का निर्माण कराया गया है. एक पिकनिक स्थल के रूप में इसकी प्रशंसा लोगों को आकर्षित कर रही है. इस स्थल की लोकप्रियता एवं सुंदर हसदो तट की जल राशि के सौंदर्य से प्रभावित वर्तमान जिला अध्यक्ष माननीय श्री नरेंद्र दुग्गा जी के प्रयास ने इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की शुरुआत कर दी है जिसके अंतर्गत दो अलग अलग पाट मे दो छायादार विश्राम स्थल एवं उन दोनों स्थलों को जोड़ने हेतु एक कांक्रीट रोड बनाने का कार्य प्रारंभ किया गया है, जो आने वाले समय में पर्यटकों को सुविधा प्रदान करेगा तथा आकर्षण का केंद्र बनेगा. लगातार पर्यटकों के आने से गाँव की उन्नति के नए अध्याय लिखने एवं संसाधनों के विकास के द्वार खुलने की संभावनाएं बढ़ेगी.
महामाया मंदिर तक जाने के लिए बनाए जाने वाले रोड निर्माण के समय खुदाई में कुछ मिट्टी के बर्तन, चूड़ियां एवं कांच के टुकड़े तथा दांती अर्थात् धनुष के तीर के आगे नोक में लगाई जाने वाली लोहे की नोक और राख और लकड़ी के कोयले का मिलना इस गांव के पुनः बसने की धारणाओं को भी मजबूती प्रदान करता है. जो गांव के पुराने ग्राम वासियों की चर्चा से उभर कर आता है. जो घनघोर जंगल होने के कारण या गांव बसने के बाद उजड़ गया एवं बाद में छिपछिपी ग्राम के नाम से पुनः बसाया गया. ऐसी भी संभावना है कि उत्तर से दक्षिण की तीर्थ यात्रा पर जाने वाले जाने का अमरकंटक मार्ग होने के कारण कुछ लुटेरों का यह आश्रम स्थल रहा हो, जो यात्रियों को लूटने का कार्य करते रहे होंगे. बहरहाल दो चार परिवार से प्रारंभ हुआ यह गांव आज हजार आबादी का गांव बन गया है. आजादी के पूर्व राजाओं के राज्य में पुरखो द्वारा की जाने वाली बेगारी श्रम की घटनायें उन पुरानी स्मृतियों के दर्द को ताजा कर दिया जब गांव के लोगों को बिना मजदूरी दिए काम कराया जाता था. आदेश की अवहेलना करना राज कर्मचारियों को पसंद नहीं था काम के लिए नहीं कहने वाले को यातनाएं दी जाती थी ताकि कोई बेगारी पर जाने से मना न कर सके. हर गांव से एक दो सप्ताह के लिए अपना भोजन पकाने का बर्तन एवं चावल कोदो कुटकी जो भी उपलब्ध हो लेकर जाना पड़ता था. बाद में दूसरे बेगारी मजदूरों के आने पर पहले मजदूर को छोड़ा जाता था. ऐसी परिस्थितियों में गांव के लोग राजाओं के राज्य में रहते थे और अपना जीवन यापन करते थे. अपने ही घर से सारी चीज ले जाकर राजाओं के यहां काम करना एवं उनके मातहत कर्मचारियों के लिए काम करना एक ऐसी घटना थी जिसे सोचकर आज भी सिहरन पैदा हो जाती है. इसका एक उदाहरण यह छिपछिपी गांव भी है.
अपनी सुंदरता और हसदो नदी के तट पर बसा यह गांव आपको मां महामाया की आराधना एवं हसदो नदी का अप्रतिभ सौंदर्य निहारने के लिए परिवार सहित आमंत्रित कर रहा है. आप भी इस पर्यटन केंद्र के इस प्राकृतिक सुंदरता से भरे पर्यटन स्थल के साक्षी बन सकते हैं.