डेढ़ शतक पहले यहीं से छत्तीसगढ़ में फैला ईसाई धर्म.
वरिष्ठ पत्रकार शंकर पांडे की कलम से.....{किश्त 174}
रायपुर से बिलासपुर मार्ग पर करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर विश्रामपुर है और छत्तीसगढ़ के कोने- कोने में फैले ईसाई धर्म की धारा यहीं से निकली थी। सन 1868 में करीब1544 एकड़ जमीन खरीद रेवरं फादर ऑस्कर टी लोर ने पहली मिशनरी यहां स्थापित की। तब घने जंगल के इस इलाके में लोगों को लाकर बसाया गया,स्कूल, हॉस्टल, अस्पताल,चमड़ा फैक्ट्री जैसे कई संस्थान बनाए थे ।28 मार्च 1824 में जर्मनी में जन्मे ऑस्कर थियोडोर लोर के पिता सर्जन थे। बेटे को मेडिकल की पढ़ाई के लिए पहले जर्मनी के एक कॉलेज और फिर रशिया भेज दिया था। रशिया में ही ऑस्कर लोर को लगा कि वो परमात्मा की सेवा हेतु इस दुनिया में आए हैं। बर्लिन की गॉसनर मिशनरी सोसायटी ज्वाइन की। पहली बार 1850 में रांची आए।1857 तक वहां हिंदी सीखी, इलाज किया, उनकी सेवा की। 1858 में अमेरिका चले गए।1868 में फिर भारत लौटे। इस बार वे परिवार सहित यहीं बस जाने के लिए आए थे। उन्होंने छ्ग के विश्रामपुर में सेंट्रल इंडिया की मिशनरी का हेडक्वार्टर बनाया और यहीं रहने लगे। पत्नी और दो बेटे भी साथ यहां से ग्रामीणों के इलाज,उन्हें भोजन, शिक्षा, रोजगार मुहैय्या कराने में जुट गये ।
पहला चर्च और कब्रिस्तान!
विश्रामपुर में ही फादर लोर ने छत्तीसगढ़ के पहले चर्च की नींव रखी गई।15 फर वरी 1873 को इम्मानुएल चर्च का निर्माण शुरू किया और 29 मार्च 1874 को यह बनकर तैयार हो गया ।पत्थरों से बने, बिना कॉलम के बने इस चर्च की सबसे बड़ी खासियत है कि इससे लगा हुआ कब्रिस्तान। दूसरे स्थानों पर लोग कब्रिस्तान के पास से भी गुजरना नहीं चाहते लेकिन यहां घूमने आते हैं। रात 11-12 बजे तक कब्रों के बीच लोगों की चहल-पहल रहती है। यहां मुख्य प्रार्थनाघर और कब्रों के बीच 10-12 फीट का रास्ता बस है। आज भी यहां शव दफनाए जाते हैं। कहा जाता है कि देश में यह संभवतः पहला चर्च है जिससे लगा कब्रिस्तान है। फादर लोर ने ऐसा इसलिए किया कि एक ही परिसर में जीवन और मृत्यु लोगों को दिखते रहे। फादर लोर की मौत 1907 में कवर्धा में हुई,लेकिन उनका शरीर बाद में यहीं दफनाया गया।
100%आबादी क्रिश्चियन
विश्रामपुर में प्रवेश के साथ ही आपको दोनों ओर घरों में क्रास या ईसाई समाज के धर्म के चिन्ह स्लोगन लिखे दिखते हैं। जब फादर लोर आए थे तब सतनामी समाज का वर्चस्व था। यहां के लोगों की मदद करना शुरू किया।मेडिकल फील्ड से थे,लिहाजा दवाएं,इलाज भोजन, शिक्षा, था दूसरी सुविधाएं देकर लोगों को प्रभाव में ले लिया। 1870 से धीरे-धीरे लोगों को ईसाई धर्म में शामिल करना शुरू किया।दावा किया जाता है कि भारत में विश्रामपुर एक ऐसा गांव है जिसकी 100 फीसदी आबादी क्रिश्चियन है। ये उन्हीं लोगों की पीढ़ी है जिन्हें फादर लोर ईसाई बनाया था।
बड़े बेटे की कुर्बानी..!
डॉ लोर चर्च परिसर में ही बने बंगले में परिवार सहित रहते थे।तब पूरा इलाका घना जंगल था और टाइगर जैसे कई खतरनाक जान वरों से भरा हुआ था। उनके दोनों बेटे कार्ल-जूलिय सभी साथ मिशनरी के सेवा कार्यों में शामिल थे। फादर लोर पर रिसर्च पेपर लिखने वाले एक स्कालर के अनुसार 25 अक्टूबर 1887 मेंकार्ल पर टाइगर ने अटैक किया और उसकी मौत हो गई। गांव में एक चर्चा आज भी है कि कार्ल को शेर उठाकर ले गया फिर वो ना मिला,ना उसकी लाश! इसके कुछ समय बाद ही उनके छोटे बेटे जूलियस की डिप्रेशन से मौत हो गई। भारत में पड़े भीषण अकाल के बाद उसका ब्रेक़डाउन हो गया।
बाइबिल के एक अध्याय का किया था
छत्तीसगढ़ी में अनुवाद…
फादर लोर,उनके दोनों बेटों ने छ्ग के दूसरे हिस्सों में तेजी से मिशनरी मतलब ईसाई धर्म को फैलाना शुरू किया। ग्रामीणों की कई तरह से मदद कर अपना प्रभाव तो जमा ही लिया था। स्कॉलर की रिसर्च के मुताबिक जूलियस ने तो यहां के लोगों को ईसाई धर्म से जोड़ने के लिए बाइबिल के एक अध्याय ‘गॉस्पेल ऑफ मार्क्स’ का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद कर दिया था। फादर लोर की मिशनरी ने उस समय कितनी तेजी से छग में ईसाई बनाया इसका उदाहरण है कि1880 में विश्रामपुर में 4 लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया था वहां 1883 आते- आते यह संख्या 258 पहुंच गई।1884 तक विश्रामपुर के अलावा रायपुर,बैतलपुर और परसाभदर में मिशनरी के तीन सेंटर बना दिए गए। 11 स्कूल खोल दिए गए।अब तक इन सभी स्थानों पर दूसरे धर्मों से क्रिश्चियन बने लोगों की संख्या 1125 हो गई थी।करीब 150साल पहले विश्रामपुर से शुरू इस मिशनरी की शाखाएं गांव-गांव में हैं और लाखों लोग इससे जुड़े हैं।