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मनेन्द्रगढ़ की सांस्कृतिक विरासत नवरात्रि महोत्सव और धनुची

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मनेन्द्रगढ़।एमसीबी। छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत में मनेन्द्रगढ़ का इतिहास वर्तमान में ज्यादा पुराना भले ही ना हो लेकिन इस देश के आस्था के महापुरुष भगवान राम का वनवासी चरित्र की गाथा का साक्षी यह अंचल त्रैतायुग काल  अर्थात अनुमानित तौर पर 15-20 हजार वर्ष पुराने ऐतिहासिक पन्नों में दर्ज है.  वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड में दर्ज दंडकारण्य  की  देवभूमि क्षेत्र में इस अंचल का  जिक्र मिलता है. जो अनजाने ही पुराने  कारीमाटी और वर्तमान मनेन्द्रगढ़ अंचल की ऋषि मुनियों की तपस्थली स्थल को   एक समृद्ध सांस्कृतिक एवं सामाजिक वैभवशाली स्थल मनेन्द्रगढ़ में होने का पता देती है।

मनेन्द्रगढ़ की सांस्कृतिक विरासत नवरात्रि महोत्सव और धनुची
कारीमाटी के नाम से अपनी पहचान रखने वाली यह संस्कार भूमि वर्ष 1928 में कोयला एवं रेल पटरियों के लिये जंगल की लकड़ियों के परिवहन हेतु रेलवे लाइन के आगमन के साथ परिवर्तित नाम मनेन्द्रगढ़ की पहचान बनकर उभरी  इस नाम के पीछे कोरिया राजा रामानुज प्रताप सिंह देव के पुत्र राजकुमार मनेन्द्रसिंह देव का नाम भी जुड़ा हुआ है.  एक लोकोक्ति मनेन्द्रगढ़ के लिए भी चरितार्थ होती है कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. अपनी ईश्वरी आस्था एवं सांस्कृतिक पहचान की इस  भूमि का प्राचीन इतिहास कोल राजाओं के राज्य  इतिहास के साथ जुड़ा हुआ है.वनवासी आदिवासी कोल राजा एवं कोल जाति हमेशा से ही देवी भक्ति रहे हैं. अपने तीज  त्योहारों में देवी की उपासना एवं नवरात्रि के दोनों पर्वों पर अलग-अलग मान्यताओं के तौर पर देवी पूजा इस अंचल की विशिष्ट पूजा में शामिल रही है, जिसमें आदिवासी परंपरा में बलि प्रथा के साथ-साथ रोमांचक एवं साहसिक करतबों  को त्रिशूल से जीभ को छेद लेना, लोहे के नुकीले आसन पर बैठकर झूला झूलना,   अग्नि पर एवं लोहे के नुकीले आसन पर खुले पैर चलना,  जैसे रोमांच  भरे कार्य आज भी आदिवासी समाज के बीच मिल जाएंगे.  ऐसे करतब आस्था के बल पर प्राप्त सहनशीलता  एवं देवी के लिए कुछ कर गुजरने का साहस और रोमांच के द्वारा साधकों एवं भक्तों द्वारा संपन्न किया जाता है.

मनेन्द्रगढ़ की सांस्कृतिक विरासत नवरात्रि महोत्सव और धनुची
वर्तमान समय के सौ  साल के मनेन्द्रगढ़ के सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी में रंग कर्मियों के अनुसार इस अंचल में अनुमानतः  चौथे दशक के मध्य 1935 में इस नगर का पहला नाटक दानवीर कर्ण का मंचन किया गया. ड्रामा मंडली मनेन्द्रगढ़ के नाम से चर्चित इस मंडली द्वारा 1935 से लेकर लगातार कई नाटकों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मंचन किया जाते रहे.  स्वाभाविक रूप से 1928 में रेल लाइन आने से मनेन्द्रगढ़ में अपने जीविकोपार्जन के लिए पूरे भारतवर्ष के कोने-कोने से अलग-अलग जाति एवं संप्रदाय के लोगों का आगमन हुआ. मनेन्द्रगढ़ के व्यापारियों में एक बहुत बड़ा समुदाय  जैन एवं हिंदू संस्कृतियों को साथ लिए पाकिस्तान एवं पूर्वी बंगाल अर्थात वर्तमान बांग्लादेश से आकर मनेन्द्रगढ़ में आजादी के पहले या उसके आसपास के समय काल में बस गया . अपने जीविकोपार्जन सहित मनेन्द्रगढ़ गांव से लेकर नगर बनने  तक की यात्रा में आज भी प्रयासरत है.  सी पी बरार के क्षेत्र से  नागपुर- चिरमिरी रेलवे लाइन के नाम से मनेन्द्रगढ़ एवं चिरमिरी को जोड़ती हुई रेलवे का जुड़ाव कोलकाता से सीधा होने के कारण उस समय मनेन्द्रगढ़ एवं चिरमिरी क्षेत्र में बंगाल की संस्कृति का प्रभाव तेजी से बढ़ा,  जो प्रारंभ में शारदीय नवरात्रि के साथ-साथ इस अंचल में भी आगे बढ़ा. गीत नृत्य ड्रामा एवं ऐतिहासिक नाटकों के साथ-साथ रामायण एवं महाभारत के आध्यात्मिक पक्षों  को लेकर मंचीय  प्रस्तुति के लिए नवरात्रि एवं जन्माष्टमी के पर्व एवं त्योहार के मंचों का उपयोग होता था.  दूरदर्शन एवं मोबाइल के साथ-साथ अन्य मीडिया एवं मनोरंजन के साधनों के अभाव में उस समय सामाजिक रूप से मेलजोल एवं आपसी अभिवादन का यह सांस्कृतिक मंच एक सशक्त माध्यम होता था. 1930 के बाद रेलवे कॉलोनी में सशक्त सांस्कृतिक मंचों की प्रस्तुति एवं लगाव हमेशा से नगर को आकर्षित करती रही है, वहीं एक प्रतिस्पर्धा के तौर पर नगर एवं विद्यालयीन छात्रों को भी प्रोत्साहित करती रही है. मनेन्द्रगढ़ की ड्रामा मंडली इसी तरह की परिस्थितियों का परिणाम था. 1940 से 1990 तक रेलवे की दुर्गा पूजा एवं जन्माष्टमी की चर्चा की प्रशंसा दूर-दूर तक अंबिकापुर एवं चिरमिरी तक सुनाई देती थी.  चिरमिरी की कोयला खदानों से जुड़े मालिक एवं बंगाल संस्कृति के लोगों के आगमन ने बंगाली आयोजनों एवं परंपराओं का प्रभाव चिरमिरी में भी बढ़ाया.  जो आज भी आपको देखने को मिलेगा.. 1902 में रविंद्र नाथ टैगोर को अपनी पत्नी के टीबी  (क्षय रोग) के इलाज के लिए पेंड्रा आना पड़ा था .टीवी सेनेटोरियम पेंड्रा से जुड़ाव को भी चिरमिरी में उनके गीत की प्रस्तुतियां एवं उनके नाटकों का मंचन बंगाली संस्कृति की यादों के ऐसे ऐतिहासिक दस्तावेज है जिनको चिरमिरी में स्थापित किए जाने की आवश्यकता है.  चिरमिरी कालीबाड़ी का इतिहास काफी पुराना एवं सांस्कृतिक धरोहरों से भरा हुआ है जिसे संजोने और आगे बढ़ाने  केसाथ स्थयित्व के  लिए आज समय वर्तमान युवा पीढ़ी की ओर आशा भरी निगाहों से निहार रहा है.
वर्ष भर में नवरात्रि का पर्व दो बार मनाया जाता है आश्विन माह की नवरात्रि शारदीय नवरात्रि  कहलाती है जो भारतवर्ष के पूर्वी भाग में धूमधाम से मनाया जाता है बिहार, भूटान, नेपाल तथा झारखंड इसकी सीमा से जुड़े होने के कारण यह नवरात्रि इस चंचल में प्रभावशील है,  किंतु आदिवासी परंपराओं में तथा उत्तर प्रदेश के बहुत बड़े भूभाग में चैत्र नवरात्रि की साधना एवं आवश्यक आस्था ज्यादा दिखाई पड़ती है.  जो घर-घर तक मनाई जाती है.  यूं तो परंपरागत रूप से अलग-अलग क्षेत्र में शारदीय नवरात्रि में मां दुर्गा के विशाल प्रतिमा उनके नौ अवतार तथा गणेश एवं सरस्वती मां के साथ स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है. कई स्थानों पर 9  एवं कुछ स्थानों पर तीन दिवसीय नवरात्रि के षष्ठी एवं सप्तमी से स्थापना कर पूजन व्यवस्था की जाती है. अपनी अपनी आस्थाओं में सभी पंडालों में पूजा और आरती कर देवी मां को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है ताकि इस अंचल में  मां दुर्गा  दुष्ट का नाश करें एवं  सुख समृद्धि तथा संपन्नता का वरदान और आशीर्वाद प्रदान करें .
आसपास अंचल के सभी स्थलों पर विराजी मां दुर्गा के पंडालों की आस्था के साथ मनेन्द्रगढ़ में लगभग 35 से 40 स्थान पर दुर्गा पंडाल स्थापित किए जाते हैं. अलग-अलग प्रतिमाओं की आभाओं का साथ पाने और इसके दर्शन के लिए सप्तमी से नवमी तक प्रतिदिन लगभग 40 से 50000 जनसमूह नगर के पंडालों से आशीर्वाद लेकर गुजरता है. मनेन्द्रगढ़ दुर्गा पंडालों में अलग-अलग विशेषताओं के साथ पंडाल बनाए जाते हैं.  रेलवे इंस्टिट्यूट में जहां आपको बंगाल की परंपरा दिखाई पड़ती है वहीं राजस्थान भवन के पास रेलवे कॉलोनी में प्रत्येक वर्ष नए प्रयोग के साथ मूर्ति स्थापित की जाती है.  कभी यह मूर्ति हजारों नारियलों से सजाई जाती है.  कभी प्राकृतिक झरने एवं पहाड़ों से सुसज्जित यह  पंडाल भक्तों को अभिभूत कर देता है.  1960 से 2000 तक डॉक्टर सरकार एवं  टालाराम जैसे उनके सहयोगी श्री राम  मंदिर प्रांगण में दुर्गा पूजा की बंगाल संस्कृति को प्रदर्शित करते रहे हैं. जिसमें धनुची नृत्य एवं दशहरा के दिन सिंदूर खेला की यादें आज भी नगर वासियों के मन मस्तिष्क में भरी हुई है.  समय के अनुसार इन पंडालों में काफी बदलाव आए हैं लेकिन तत्कालीन समय में धनुची नृत्य को और श्रेष्ठ बनाने की कोशिश में इसकी प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती थी ताकि आने वाली पीढ़ी को इसी स्वरूप आकर्षण और आस्था के साथ सौंपा  जा सके .

समय के कालखंड ने इसमें ग्रहण लगा दिया है. अब बंगाल की संस्कृति की दुर्गा पूजा गिने चुने पंडालों पर केवल प्रतीक के रूप में दिखाई पड़ती है. धनुची के पात्र शांत पड़े हैं और मां दुर्गा के आशीष से भरी सुगंधित धुएं  का वह वातावरण अब दिखाई नहीं पड़ता. महिलाओं की टोली में वह सिंदूर खेला का उत्साह जाने कहां चला गया है. मेरी चिंता है कि आने वाली बेटियों को सिंदूर खेला और युवक युवतियों को धनुची जैसे नृत्य क्या हम केवल तस्वीरों में ही दिखा पाएंगे
मनेन्द्रगढ़ के दुर्गा पंडाल अंचल ही नहीं पूरे देश में अपने प्रसाद वितरण के लिए प्रसिद्ध है. आपको मां का आशीर्वाद एवं भोग प्रसाद इतना मिलता है कि आपको अपने घर पर वापस भोजन करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. भोग भंडारा की सामग्री एवं समय सीमा निश्चित नहीं होती , इसमें शुष्क मेवा ,मीठा के साथ सभी व्यंजन खिचड़ी, खीर ,आलू बंडा, समोसा, चमचम, रसमलाई ,खीर, पूरी ,लड्डू, पेड़ा ,राजमा चावल ,छोले भटूरे, छोले चावल, एवं आपके मन में जो भी इच्छा हो मां से याद करें ,संभवत देवी जी के किसी भंडारे में उसकी व्यवस्था आपके लिए हो जाएगी. आपको जानकारी देना आवश्यक है कि मनेन्द्रगढ़ पंडाल में 10000 आलू बंडा 2 घंटे में बढ़ जाता है वही चमचम एवं रसमलाई सहित ड्राई फ्रूट के पैकेट भी लोगों तक डेढ़ 2 घंटे में ही इतने बांट दिए जाते हैं. करोना काल  ने मां दुर्गा के इस पंडाल व्यवस्था पर प्रभाव डाला है . इसके पूर्व गांव से आने वाले ग्राम वासियों के रात्रि रुकने के लिए पंडाल की व्यवस्था मनेन्द्रगढ़ में जगह-जगह बनाई जाती थी,  ताकि गांव से आने वाले देर रात्रि अपने गांव तक यदि न जा पाए तो इन पंडालों में आराम कर सुबह होने का इंतजार कर सकते हैं. नवरात्रि पर्व के इस महोत्सव में मनेन्द्रगढ़ देवी दर्शन उनके आशीर्वाद एवं भारतवर्ष में अपने भोग प्रसाद  वितरण के लिए प्रसिद्ध मनेन्द्रगढ़ एक बार जरूर आए एवं स्वयं इस भोग प्रसाद की वितरण के साक्षी बने. हमारा विश्वास है कि आस्था आशीर्वाद एवं अंचल के समृद्धि के की कामना सहित मां दुर्गा के इस विशाल आयोजन में आपका आना सार्थक होगा और मां दुर्गा के इस आस्था पर्व को व्यापक विस्तार मिलेगा. माँ आपकी हर मनोकामना पूर्ण करे.


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घूमता दर्पण, कोयलांचल में 1993 से विश्वसनीयता के लिए प्रसिद्ध अखबार है, सोशल मीडिया के जमाने मे आपको तेज, सटीक व निष्पक्ष न्यूज पहुचाने के लिए इस वेबसाईट का प्रारंभ किया गया है । संस्थापक संपादक प्रवीण निशी का पत्रकारिता मे तीन दशक का अनुभव है। छत्तीसगढ़ की ग्राउन्ड रिपोर्टिंग तथा देश-दुनिया की तमाम खबरों के विश्लेषण के लिए आज ही देखे घूमता दर्पण

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