भारतीय आध्यात्मिक सूर्य और चंद्रमा को हम देवता का स्थान देतेहैं क्योंकि सूर्य चंद्रमा के साथ-साथ संपूर्ण ब्रह्मांड एवं हमारी पृथ्वी अपने-अपने संतुलन पर टिकी हुई है. गांव से शहर के इस परिवर्तन के दौर में हम उन दिनों को खो चुके हैं जब शाम होते ही लोग अपने घरों में पहुंच जाते थे. रात 8-9 बजते घर परिवार के साथ संयुक्त रूप से दिन भर के दिनचर्या के बीच पालथी मारकर भोजन करने बैठ जाना और फिर आंगन में खाट निकाल कर बिस्तर लगा देना यह हमारी दिनचर्या में शामिल था. वही बिस्तर पर बैठकर या लेट कर बुजुर्गों से ब्रह्मांड, निहारिका, आकाशगंगा और हमारे सौरमंडल सूर्य और चंद्रमा के रहस्यों की जानकारी प्राप्त करना अब पुराने दिनों की बात बनकर रह गई है. शहरों की रात अब सड़को के किनारे जलती लाइट से चकाचौंध है जो हमें रात्रि के अंधेरे में आसमान में उठने तारों से दूर कर चुकी है. इन्हीं तारों को देखकर हमारे बुजुर्ग हमें उनकी पहचान और उनके संरक्षण की छोटी-छोटी बातें बताया करते. सप्त ऋषि तारा, ध्रुव तारा और इसी प्रकार उनका परिभ्रमण मंडल के बारे में जानकारी के साथ-साथ हमें संतुलन का सिद्धांत भी समझाते थे. सरल भाषा मे बुजुर्ग बतलाते थे कि यह सभी तारे और ग्रह नक्षत्र अपनी निर्धारित जगह पर अपने संतुलन के साथ एक दूसरे का चक्कर लगा रहे हैं फिर चाहे वह सूर्य हो चंद्रमा हो या फिर पृथ्वी और और कोई अन्य ग्रह हो. सबका चलने का अपना निश्चित रास्ता है जब भी किसी ने अपनी सीमाएं तोड़कर रास्ता बदलने की कोशिश की है वह नष्ट हो जाता है. यही प्रकृति का सिद्धांत है. यह मानव जीवन पर भी लागू होता है . इसी प्राकृतिक संतुलन में पृथ्वी पर बढ़ता प्रदूषण एवं मानव द्वारा किए जाने वाले कथित विकास के दुष्परिणामों के कारण बिगड़ता पारिस्थितिकी संतुलन जैसे कार्य आज पृथ्वी के संतुलन को प्रभावित कर रहे हैं हमारे आसपास का वातावरण एवं जलवायु परिवर्तन का बदलाव हमारे मानव समाज पर पड़ने वाले प्रभाव हमें सचेत कर रहा है. चिंतन की इस श्रृंखला में हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी है तो मानव है इसके अतिरिक्त और कोई ग्रह मानव जीवन के लिए उपयुक्त नहीं है
पृथ्वी की इसी सीमाओं मे हमारा देश भारत भी शामिल है. हमारे देश में विश्व में कई कीर्तिमान बनाए हैं. इसमें विगत दिनों की पत्र पत्रिकाओं में कहा गया है कि हमारा देश कबाड़ प्लास्टिक के उत्सर्जन में टॉप 90 देश में अब प्रथम स्थान पर है. हमारे देश में प्रतिवर्ष 93 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा निकलता है यह पूरे विश्व का 20% प्लास्टिक प्रदूषण का देश बन गया है. नाइजीरिया और इंडोनेशिया जैसे छोटे-छोटे देश हमारे बाद दूसरे या तीसरे पायदान पर है .आपको जानकर निराशा होगी कि विश्व का लगभग 70% प्लास्टिक प्रदूषण का उत्सर्जन केवल 20 देश करते हैं यह भी देखा गया है कि उच्च आय वाले देश ही सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा पैदा करते हैं, लेकिन उच्च आय वाले देशों में कोई भी देश इस 90 उच्च प्लास्टिक प्रदूषण वाले देशों में शामिल नहीं है क्योंकि वहां शत् प्रतिशत प्लास्टिक कचरो का संग्रहण एवं उसके नियंत्रित निपटान की व्यवस्था है.
छोटे-छोटे नगर या बड़े महानगर शहरी क्षेत्र में उत्सर्जित कचरे के निष्पादन की कोई समुचित व्यवस्था न होना हमें भविष्य के प्रति गंभीर चिंता को प्रेरित कर रही है. शहरों को स्वच्छ रखने के प्रयास में हम शहरी कचरे को प्रकृति के शांति एवं शुद्ध वातावरण के जंगलों में डाल रहे हैं. नगर पालिका नगर निगम जैसी स्थानीय इकाइयां यही कर रही है. इसमे दिल्ली मुंबई जैसे शहर हो या छत्तीसगढ़ के रायपुर दुर्ग एवं कोरबा जैसे छोटे शहर सभी शामिल है. अभी हम उत्सर्जित कचरे के निपटान या उसके किसी दूसरे उपयोग में लाने के संबंध में कोई ठोस सर्वमान्य प्रणाली नहीं दे पाए हैं. यह सोचकर दुख होता है कि क्या ईश्वर ने शुद्ध वातावरण से भरे जंगलों और घाटियों की वादियां हमें शहरी प्रदूषित कचरो से पाटने के लिए प्रदान की है. मानव होने के नाते हमें रोजमर्रा की समस्याओं की तरह इस दिशा में भी सोचना होगा,और अपनी चिंता की आवाज़ समय-समय पर शासन प्रशासन तक भी पहुंचानी होगी.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरो की सूची में रायपुर दुर्ग और कोरबा जैसे छत्तीसगढ़ के शहर का शामिल होना हमारी चिंता का बिषय है. मध्य प्रदेश के ज्यादा भीड़ – भाड़ वाले पर्यटन एवं धार्मिक शहर उज्जैन, भोपाल, ग्वालियर एवं राजस्थान के जयपुर , जोधपुर और अलवर जैसे शहर भी सबसे ज्यादा प्रदूषित 131 शहरों में शामिल है. प्रदूषित शहरों की सूची का यह आकलन 3 लाख से 10 लाख तक की जनसंख्या की क्षेत्र पर किया गया है अन्यथा आपका भी शहर प्रदूषित शहरों के इस सूची में शामिल हो सकता है. कई राज्यों की राजधानी दिल्ली, श्रीनगर , पटना ,चेन्नई और कोलकाता जैसे शहर का नाम इस सूची में आना हमारी चिंता का विषय होना चाहिए. यह पैमाना वायु में सल्फर डाइऑक्साइड नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड के साथ अमोनिया जैसे गैसों की वायुमंडल में अधिकता तथा ठोस कचरे में शीशा( लेड) , निकिल जैसे विषैले तत्वों की नियंत्रण सीमा से ज्यादा मात्रा हमारे लिए चिंतित करने वाली घटनाएं है हालांकि केंद्र सरकार इन शहरों में इसके नियंत्रण के लिए प्रयास प्रारंभ कर चुकी है लेकिन मानव समाज को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए भी चिंतित होना आवश्यक है केवल शासकीय प्रयास से इस पर अंकुश लगाना संभव नहीं है अपनी दिनचर्या के बदलाव से हम इस पर अंकुश लगा सकते हैं
नई तकनीक के प्रयोग से उत्सर्जित कचरे के निष्पादन में कुछ नियंत्रण किया जा सकता है इस दिशा में तकनीकी शोध को बढ़ावा देना आज की जरूरत बन चुकी है कचरा प्लास्टिक का उपयोग अब कोयले के विकल्प के लिए उपयोग किए जाने की तकनीक की जानकारी एक सुखद सूचना हमारे लिए है. सीमेंट कंपनियों में सबसे ज्यादा उपयोग होने वाले कोयले के विकल्प विकल्प के रूप में कचरा प्लास्टिक अब ईंधन के रूप में उपयोग करने का प्रयास प्रारंभ किया जा रहा है. अच्छी खबर यह भी है कि शहरों में बरसात का पानी भरने पर बाढ़ जैसी स्थिति निर्मित करने वाले और जलने से दुनिया की सबसे घातक फास्फीन गैस पैदा करने वाली सिंगल उपयोग के एक किलो कचरा प्लास्टिक से 3 किलो ग्राम कोयल के बराबर ऊर्जा पैदा होती है. सीमेंट फैक्ट्री में इस दिशा में कार्य प्रारंभ हो चुका है. इस तरह के प्रयोग भविष्य के अच्छे परिणाम को इंगित करते है किंतु छोटे से बड़े शहरों तक इस बढ़ते हुए प्लास्टिक कचरे के निष्पादन में हमारी भूमिका और बढ़ जाती है हमें इन प्लास्टिक कचरो को अलग-अलग संग्रहित करने में नगर पालिकाओं और स्थानीय संस्थाओं को सहयोग करना होगा.
दिन प्रतिदिन बढ़ता कचरा और इससे उत्पन्न होने वाली विषैली गैसें प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और वनों के कटाव से जलवायु परिवर्तन आज मानव समाज एवं पृथ्वी के अस्तित्व के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है पृथ्वी हमारे सौरमंडल का एक ऐसा ग्रह है जहां अब तक की जानकारी के अनुसार मानव जीवन सुरक्षित है अन्य कहीं पर भी अब तक मानव के अस्तित्व की जानकारी प्राप्त नहीं है. इस अनमोल सुंदर पृथ्वी एवं मानव जीवन को बचाए रखने के लिए आवश्यक है कि पृथ्वी के जलवायु परिवर्तन को टीपिंग सीमा से बाहर जाने से रोकने का प्रयास किया जाए. नेचर साइंस विज्ञान के माध्यम से प्राप्त जानकारी के अनुसार पृथ्वी जैसे ग्रह पर कई बदलाव ऐसे होते हैं जो हजारों लाखों वर्षों में होते हैं एवं प्रकृति उन्हें समय-समय पर नियंत्रित भी करती रहती है इसे हम टिप्पिंग प्वाइंट कहते हैं इसमें ग्लेशियर के बर्फ, शुद्ध हवा, पारिस्थितिकी तंत्र जैसे कारक पर नियंत्रण शामिल होता है. वैज्ञानिकों की चिंता यह है कि वर्तमान समय में पृथ्वी का बढ़ता तापमान टिपिंग प्वाइंट के नियंत्रण की सीमाएं लांघ रहा है. वर्तमान समय मे सामान्य टिप्पिंग प्वाइंट जो 0.8 डिग्री सेंटीग्रेड होता है और प्रकृति द्वारा हजारों वर्षों से इसे नियंत्रित कर लिया जाता है लेकिन आज टिप्पिंग प्वाइंट की गर्मी 1 डिग्री सेंटीग्रेड से 2 डिग्री सेंटीग्रेड तक का परिवर्तन पृथ्वी पर गंभीर चेतावनी और विनाश की दिशा इंगित कर रहा है. जो पृथ्वी एवं मानव जीवन के समाप्ति की उल्टी गिनती के साथ खतरे का बहुत बड़ा संकेत है.
यह हम सभी जानते हैं कि हमारे छोटे से क्षणभंगुर जीवन काल को बीतने में ज्यादा समय नहीं लगेगा लेकिन यदि हम अपने संतानों का सुख जीवन चाहते है और आने वाली पीढ़ियों के लिए पृथ्वी पर मानव जीवन को बचाए रखना है तब हमें पृथ्वी को बचाने के बारे में सोचना होगा. इसके लिए जरूरी है कि जीवन जीने की शैली में हमें ऐसे बदलाव की जरूरत है जिसमें हम और हमारी पृथ्वी दोनों ही बची रहे. इसके लिए स्वस्थ चिंतन के साथ समाज एवं सरकारों को आगे आना होगा. भारतीय सांस्कृतिक सोच के अंतर्गत पशुधन का विकास एवं घरों में निकलने वाली ग्रीन कचरे का पशुधन एवं खाद बनाने के लिए उपयोग भी इस दिशा में कारगर साबित हो सकता है. प्लास्टिक के विकल्प की तैयारी के साथ इसके उत्पादन एवं उपयोग पर नियंत्रण के लिए इसके निर्माण उद्योगों पर प्रतिबंध की दिशा में भी विचार करना चाहिए. इसी तरह दैनिक जीवन से उत्पन्न कचड़े के प्रबंधन एवं निष्पादन की समुचित व्यवस्था आज की जरूरत है. अपने शहरों से कचरा उठाकर जंगलों में डाल देना कचरे की सही निष्पादन की व्यवस्था नहीं कही जा सकती है. कचरा निष्पादन की इस कड़ी में हम अपने घरों से निकलने वाले प्लास्टिक और सूखे कचरे एवं गीले कचरे को अलग-अलग रखकर सफाई कर्मियों एवं नगर पालिकाओं को बहुत बड़ा सहयोग कर सकते हैं. आईए मानव अस्तित्व और पृथ्वी के संरक्षण के इस चिंतन में हम सभी शामिल हो.
बस इतना ही,चिंतन की अगली कड़ी में,फिर मिलेंगे….