क्या बढ़ता तापमान पृथ्वी को बाध्य कर रहा है फिर से आग का गोला बनने के लिए–?

ब्रह्मांड में हमारी पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जहां की प्राकृतिक संपदा में मानव एवं पशु पक्षियों का जीवन भी है. हमारे सौरमंडल के अतिरिक्त वर्तमान शोध के अनुसार अब तक कोई भी ग्रह नही है जहां जीवन हो. हाँ न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों ने नवीन अनुसंधान में 25000 प्रकाश वर्ष दूर एक ऐसे ग्रह की खोज की है, जो पृथ्वी जैसा है और हमारे सूर्य के दसवें भाग के बराबर एक छोटे सूर्य का चक्कर लगा रहा है लेकिन वहां भी जीवन की अभी तक कोई जानकारी नहीं मिल पाई है. हिंदू आध्यात्मिक धरातल पर यदि चर्चा करें तब भी तीन लोक की जानकारी मिलती है. जिसे हम स्वर्ग लोक अर्थात इंद्रलोक कहते हैं वहीं दूसरी हमारी पृथ्वी लोक और तीसरा पाताल लोक जो समुद्र से जुड़ा या समुद्र के भीतर का लोक है लेकिन पृथ्वी लोक को छोड़कर हम और किसी भी लोग को केवल किवदंतियों, कहानियां एवं भक्ति के पुराणो से ही जानते हैं.
जीवन का सत्य भी यही है कि यदि पृथ्वी है तब मानव का जीवन है. यदि पृथ्वी का वातावरण अर्थात प्राकृतिक संरचना बिगड़ती है तब उसका प्रभाव जीव जंतुओं एवं नैसर्गिक संपदा नदी, पहाड़, जंगल, झरने, इत्यादि पर पड़ता है वही इस पर आश्रित पशु पक्षी और जीव जंतु भी प्रभावित होते हैं. दूसरे शब्दों में कहा जाए कि यदि पृथ्वी का प्राकृतिक संतुलन ठीक है तब मानव जीवन सुरक्षित है. संतुलन बिगड़ेगा तब मानव जीवन भी समाप्त होने लगेगा. इतना सब कुछ जानते हुए भी मानव इस पृथ्वी की चिंता को अपने दैनिक जीवन में शामिल नहीं करता है. पृथ्वी के इस भूभाग को जिसे हम धरती माता कहते हैं केवल अपने आर्थिक साम्राज्य को खड़ा करने का हमने इसे साधन बना रखा है. कभी अपनी मां समझकर इसकी चिंता और सेवा नहीं की है जबकि हम जानते हैं कि मां का क्रोध काली माता का वह क्रोध होता है जो क्रोधित होने पर नर मुंडो की माला पहनकर पृथ्वी के विनाशको को समाप्त कर देती है. इसका ज्वलंत उदाहरण हम विगत वर्षों में कोविड जैसे सामान्य रोग में भी देख चुके हैं. जिसके भयावह आक्रमण के सामने आदमी बौना दिखाई पड़ता है. धन सम्पत्ति का गुमान मे जीने वाले लोग करोड़ों खर्च करके भी जीवन नहीं बचा पाए. उस समय स्थिति इतनी भयानक थी कि शमशान घाट में शव यात्रा में जाने से लोग डरने लगे थे. अपने ही माता-पिता की शव यात्रा में अपना बेटा कंधा देने से कतरा रहा था और अग्नि संस्कार शासकीय नियमों के तहत किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पूरी सतर्कता से किया जा रहा था, लेकिन इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी हमने क्या सीखा. इस प्राकृतिक कोप से भी हमने कोई शिक्षा नहीं ली बल्कि इसे एक प्राकृतिक घटना मानकर भूल जाने की कोशिश की.पृथ्वी के लगभग सभी देशों को अपनी चपेट में लेने वाला कोविड का वह समय जहां मृत्यु का खुला आमंत्रण था, वहीं इस आपदा पर अंकुश लगाने की कोशिश के मध्य लगाए गए लॉकडाउन (प्रतिबंध) के समय कुछ सुखद परिणाम भी देखने को भी मिले. जैसे गंगा सफाई अभियान जैसी करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी जो सफाई पूरी नहीं हो पाई. उस गंगा को साफ करने का जिम्मा प्रकृति ने स्वयं अपने ऊपर ले लिया और तीन महीने मे गंगा स्वच्छ हो गई. तालाबों एवं झीलों के पानी की तलछट मे तैरती मछलियां साफ स्वच्छ दिखाई देने लगी. सड़कों पर गंदगी कम हो गई. जंगलों में छोटे-छोटे पौधे पेड़ बने की खुशी के साथ सर उठाकर देखने लगे थे. इस तरह की घटनाए यह स्पष्ट इंगित करती है कि मानवीय गतिविधियों के कारण ही प्रकृति नष्ट होती है या उसका प्राकृतिक संतुलन प्रभावित होता है. फिर भी हम यह जिम्मेदारी लेने से दूर भागते हैं. नित नई सुर्खियों में रहने वाले समाचारों में हम देख रहे हैं कि प्रतिवर्ष प्राकृतिक तापमान में वृद्धि हो रही है. आज 44 -45 डिग्री तापमान हर गांव शहर में मिल रहा है, कहीं-कहीं यह तापमान 48 डिग्री तक पहुंच गया है वैज्ञानिकों की चिंता यह है कि यह तापमान 50 डिग्री तक पहुंचाने की संभावना है. क्या होगा ऐसे समय में यदि यह 50 डिग्री तक पहुंच गया. वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि मानव त्वचा इतनी गर्मी के लिए बनी ही नहीं है. इसका स्पष्ट संकेत है कि प्रकृति की मानव जीवन के लिए सीमा समाप्त हो रही है. बढ़ते तापमान पर चिंतित अखबार का एक पन्ना यह भी कहता है कि विकास के नाम पर कच्चे मकान संरचना के बदले शहरों और गांव में बढ़ता कं कांक्रीट का जंगल हमारी पृथ्वी का बहुत बड़ा हिस्सा पूरी तरह ढाँक दे रहे हैं जिससे गर्मी को कम करने में मुख्य भूमिका निभाने वाले भूमि के जल का वाष्पीकरण नहीं हो पा रहा है दूसरी ओर कांक्रीट के बने घर एवं सड़क सूर्य की गर्मी को उत्सर्जित कर रही है जिससे शोधकर्ताओं ने चिंताजनक माना है .
पृथ्वी की हरीतिमा अर्थात वनों का क्षेत्र बड़ी तेजी से कम हो रहा है मानव की बसाहट तथा खेती-बाड़ी के लिए जंगलों का काटना लगातार जारी है. लेकिन इसका बहुत बड़ा हिस्सा औद्योगीकरण एवं भूगर्भीय संसाधनों के व्यावसायिक उपयोग के लिए किया जा रहा है जिसके लिए वनों को काटने का दबाव लगातार बढ़ रहा है आर्थिक साम्राज्य के पोषक तत्वों का यह दबाव इतना ज्यादा होता है कि वह मानव जीवन के नष्ट होने की त्रासदी को जानते हुए भी जंगलों को काटने एवं नष्ट करने के लिए हमेशा उतावले दिखाई पड़ते हैं. चिंतनीय पहलू यह है कि इसमें केवल आम आदमी नहीं बल्कि इसे संचालित करने वाली शासकीय मशीनरी की शामिल दिखाई देती है. बल्कि यह कहा जाए कि लोग पहले प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने में भी आर्थिक शक्ति का उपयोग करते हैं और बाद में उसे सुधारने के लिए आर्थिक शक्ति का उपयोग करते हैं क्योंकि दोनों प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य धनोपार्जन होता है. जिसके सामने हर संवेदना गौड़ हो जाती है जो देर सवेर हमारी एवं हमारे परिवार के विनाश का कारण बनेगी. प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन से मानव जीवन के साथ-साथ पशु पक्षियों के जीवन को दांव पर लगाने की परिणति को महसूस करते हुए भी वनों की अनियंत्रित कटाई हमें और हमारी पृथ्वी को समाप्ति के रास्ते पर धीरे-धीरे धकेल रही है.
विगत 22 मई 2024 को जैव विविधता दिवस के छत्तीसगढ़ राज्य के अरण्य भवन रायपुर में आयोजित सेमिनार में भागीदारी करने का मुझे विशिष्ट आमंत्रण मिला. जहां छ.ग.राज्य सरकारों द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करने की जैव विविधता संरक्षण के माध्यम से की जा रही कोशिश का संकल्प इस दिशा में एक आशा की किरण दिखाई देती है. जो भविष्य में कम ही सही लेकिन अच्छे परिणाम को इंगित करती है. मनेन्द्रगढ़ में जैव विविधता के संरक्षण एवं नागरिकों में इसकी जन जागृति के लिए हस्दो नदी के किनारे गोंडवाना मेरीन फॉसिल्स का संरक्षण एवं विकास एक ऐसी ही कोशिश है जो पृथ्वी पर जीवन के प्राथमिक उत्पत्ति की 28 करोड़ वर्ष पुरानी वह कहानी की दास्तां है जो आम लोगों एवं पर्यटकों को प्रकृति के चिंतन एवं प्रकृति के पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) के संरक्षण में अपनी जिम्मेदारी के प्रति हमें आगाह करायेगी.
सत्य भी यही है कि समय रहते यदि हम प्रकृति की इकोसिस्टम के साथ तालमेल करके नहीं चलेंगे तब यह पृथ्वी धीरे-धीरे बढ़ती गर्मी, कम वर्षा, आंधी, तूफान से प्रकृति का जीवन समाप्त कर फिर आग का गोला बंकर नष्ट हो जाएगी. हमारा चिंतन केवल इतना है कि हम व्यक्तिगत तौर पर इसके संरक्षण के लिए कितने सचेत है, क्योंकि यदि हम सचेत रहेंगे तब व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर स्वयं को तथा धरती माता को बचाने के लिए एक बड़ी ताकत बनकर प्राकृतिक संरक्षण अर्थात अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ सकेंगे।