छत्तीसगढ़

‘कोमाखान’,कोमा पठान, नामकरण और जमींदारी …

बागबाहरा के करीब एक जमींदारी थी कभी कोमाखान..! कोमा खान,सुअरमारगढ़ की बसा हट वाला गांव है। लगभग 300 साल पुरानी गोंडवंश की जमींदारी के नामकरण का भी रोचक इतिहास है

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( शंकर पांडे वरिष्ठ पत्रकार की कलम से)

महासमुंद जिला,बागबाहरा के करीब एक जमींदारी थी कभी कोमाखान..! कोमा खान,सुअरमारगढ़ की बसा हट वाला गांव है। लगभग 300 साल पुरानी गोंडवंश की जमींदारी के नामकरण का भी रोचक इतिहास है।कहा जाता है कि 17 वीं शताब्दी के आरंभिक काल में दक्षिण भारत के निजाम अब्दुल हसन ने सुअरमार गढ़ पर हमला किया,उनकी सेना में कोमा नामक पठान भी था। हमले में असफल होने पर अब्दुल हसन को तो वापस होना पड़ा पर कोमा पठान घायल होने के कारण वहीं रह गया,लोगों ने उसकी जान बचा ली, कोमा वहीं का होकर रह गया। उसने एक आदिवासी लड़की से शादी भी कर ली, वह पास ही जंगल में घर बनाकर रहने लगा। कुछ और लोग भी आसपास बस गये। लोग उस समय कहते थे कि ‘कोमाखान’ से मिलने जा रहा है। बस… धीरे – धीरे उस जगह का नाम कोमाखान पड़ गया यह करीब 1740 सन की बात है। कहा जाता है कि कोमाखान ने इच्छा प्रकट की थी कि जब उसकी मौत हो तो हिन्दू-मुसलमान दोनों रीति से उसका अंतिम संस्कार किया जाए पर ऐसा नहीं हो सका और उसे बडे तालाब (मोती सागर) के पास दफना दिया गया l उसकी मौत के करीब 100 सालों बाद 1856 में कोमा खान के तब के जमींदार ठाकुर उमराव सिंह ने पानी की कमी के चलते मोती सागर तालाब का विस्तार करना चाहा, कोमा पठान की कब्र हटाना जरूरी था। तब सर्वसम्मति से फैसला लिया गया कि कोमाखान की इच्छानुसार कब्र से अस्थियां निकाली जाएं .. बाद में उनका हिन्दू रीति से अंतिम संस्कार किया गया और भस्म को प्रयाग में विसर्जित कराया गया। इस अवसर पर भंडारा भी कराया गया। इसके बाद तालाब का विस्तार करके वहां सरई (साल) के खंबे की प्राण प्रतिष्ठा की गई जो आज भी कोमाखान की याद तथा हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति की एकता की मिसाल कायम करती प्रतीत होती है।


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