पृथ्वी का कवच है “ओजोन परत” इसे बचाना जरूरी
वीरेंद्र श्रीवास्तव की कलम से..... पर्यटन एवं पर्यावरण चिंतन अंक - 12
“ब्रह्मांड में घूमते हजारों लाखों तारे अपने – अपने सौरमंडल में जाने कितने ग्रहों को अपने साथ लिए अंतरिक्ष में अपने अपने निर्धारित मार्ग पर घूम रहे हैं. इन्हीं के बीच घूमता है हमारा सूर्य और उसके चारों ओर आठ ग्रह चक्कर लगाते हैं. इन्हीं ग्रहों के बीच अपने सूर्य का चक्कर लगाती पृथ्वी अपने वनों से आच्छादित जंगल, पहाड़, नदी ,नाले तथा समुद्र के साथ लाखों करोड़ो जीव जंतुओं को अपने आंचल में सुरक्षित स्थान देती है. इन्हीं जीव जंतुओं के जीवन को बचाए रखने के लिए ईश्वर स्वरूप प्रकृति ने अलग-अलग व्यवस्थाएं कर रखी है फिर चाहे वह जीवन के लिए आवश्यक प्राण वायु अर्थात ऑक्सीजन की व्यवस्था हो या जीवन को सूखने से बचाने एवं उनकी नमी और चमक बनाए रखने के लिए पर्याप्त पानी की व्यवस्था हो. प्रकृति ने नदी,नाले, झील,समुद्र और भूगर्भीय जल स्रोतों मे संचित जल की पर्याप्त मात्रा इस पृथ्वी पर रहने वाले जीव जंतुओं एवं पशु पक्षियों के लिए बना रखी है इन्हीं जल स्रोतों को जीवन की उत्पत्ति से लेकर उसे बचाए रखने का महत्वपूर्ण दायित्व सौपा गया है. इन सब के साथ ही प्रकृति ने पृथ्वी पर आने वाले सूर्य के किरणों के तापमान कोजीवन की आवश्यकता अनुसार नियंत्रित करने के लिए पृथ्वी के ऊपर ओजोन परत की एक कवच बना रखी है. पृथ्वी एवं जीवन को बचाने के लिए इस ओजोन परत को बचाना आज जरूरी है अन्यथा पृथ्वी पर जीवन और पेड़ पौधों का अस्तित्व अब खतरे में दिखाई पड़ रहा है.
पृथ्वी पर जीवन को बचाए रखने के लिए प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन कितना जरूरी है इसका उदाहरण हम कोविड -19 के महामारी के समय देख चुके हैं. जब लाखों रुपए खर्च करके भी जीवन नहीं बचाया जा सका जिसे सोच कर भी हम आज सिहर जाते हैं. अपने माता-पिता की चिता को अग्नि नहीं दे पाने वाले पुत्रों ने इस त्रासदी को बहुत नजदीक से महसूस किया है. यह प्राणवायु हमें पौधों और उन विशाल जंगलों से प्राप्त होती है जो हमारे सांसों, उद्योगों एवं रात दिन दौड़ती परिवहन गाड़ीयों और मोटरसाइकिलों द्वारा छोड़े गए कार्बन डाइऑक्साइड को पीकर हमें नीलकंठ भगवान शंकर की तरह प्राणवायु आक्सीजन प्रदान करती है.
प्रकृति ने जीवन को बचाए रखने के लिए एक और व्यवस्था के अंतर्गत हवा में व्यापक तापमान को नियंत्रित कर रखा है इस तापमान संतुलन की व्यवस्था के साथ यह भी जरूरी है कि विशाल सूर्य से आने वाली किरणों में जीवन को नष्ट करने वाले तत्वों को पृथ्वी पर रोकने के लिए कवच का काम करती है और इस कवच का नाम है पृथ्वी के चारों ओर फैली ओजोन परत. यह ओजोन परत पृथ्वी की सतह से 15 से 30 किलोमीटर की ऊंचाई पर पृथ्वी के चारों ओर एक कवच बनकर फैली हुई है जो समतापमंडल के नीचे पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करती है और सूर्य की किरणों के साथ हमारे जीवन के लिए हानिकारक तत्व पराबैंगनी किरणों को भी रोकती है. इन पराबैंगनी किरणों का प्रभाव हमारे शरीर पर त्वचा कैंसर जैसी बीमारियों के साथ हमारी त्वचा को नुकसान पहुंचाते हैं, वही पेड़ पौधों के वृद्धि पर भी अपना प्रभाव डालते हैं. इस ओजोन कवच की जानकारी सबसे पहले 1913 में भौतिक शास्त्री वैज्ञानिक फेबरी चार्ल्स एवं हेनरी बुशेन ने दुनिया के सामने रखी उन्होंने बताया कि पृथ्वी के 15 किलोमीटर ऊंचाई पर समताप मंडल में यह परत पाई जाती है. अंटार्कटिका एवं अन्य ध्रुवीय क्षेत्रों में इसकी मोटाई कहीं-कहीं कम हो जाती है लेकिन अलग-अलग स्थान पर 5 से 15 किलोमीटर तक यह मोटी हो जाती है ओजोन का यह कवच मानव के साथ पशु पक्षियोँ, पौधों की वृद्धि एवं समुद्री जल जीवन को भी बचाने में सहायक है.
पृथ्वी को संरक्षित करने वाला यह कवच सामान्यत 10 वर्षों में चार प्रतिशत की दर से अर्थात प्रतिवर्ष दशमलव 4% की दर से नष्ट होती है किंतु प्रकृति द्वारा इसकी भरपाई स्वयं के संसाधनों से हो जाती है किंतु 19वीं शताब्दी के अंत में वैज्ञानिकों ने यह पाया कि यह परत 10 वर्षों से पहले ही बहुत पतली हो गई है. अंटार्कटिका के गोलार्ध में इसकी चिंताजनक पतली परत को वैज्ञानिकों ने ओजोन परत में छेद का नाम दिया जिसका प्रभाव पृथ्वी पर दिखाई पड़ने लगा था. इस खतरे के लिए हमारी भौतिक विकास की सोच के कई पन्ने उत्तरदायी हैं. दिन प्रतिदिन बढ़ती फ्रिज, एसी की सुविधा में उपयोग होने वाली गैस हमारे लिए ही खतरा बन गई है. परिणाम स्वरुप पृथ्वी के अस्तित्व पर अब खतरा मंडराने लगा है. पृथ्वी पर आसन्न इस संकट की चिंता में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पूरे विश्व को शामिल करने की कोशिश की और लगातार 1987 1989 से लेकर लगातार 2016 तक कई बैठकों में पूरी दुनिया को मिलाकर इस ओजोन परत को मजबूत करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया है. जिससे इस ओजोन परत को मजबूत करने की दिशा में काफी उम्मीद दिखाई पड़ रही है.
पृथ्वी के ओजोन कवच को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक तत्व में फ्रिज एवं एयर कंडीशनर में उपयोग की जाने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस है. इसी प्रकार ब्रोमोफ्लोरो कार्बन जैसी गैसें जो अग्निरोधी कार्यों में उपयोग की जाती थी पूरे विश्व में अब प्रतिबंधित कर दी गई है. अब ऐसी फ्रिज के लिए हाइड्रोक्लोरो कार्बन गैस का उपयोग किया जा रहा है इस ग्रीनहाउस गैस से इस कवच को मजबूत करने में कुछ हद तक मदद मिलेगी इसी प्रकार रेफ्रिजरेटर हेतु रेफ्रिजरेंट गैस का इस्तेमाल होता है जो एक बार भरने के बाद कई वर्षों तक चलती है हालांकि यह गैसें भी पूरी तरह इस ओजोन परत की छेद को भरने में कामयाब नहीं है लेकिन विकल्प के तौर पर गैसों के उपयोग से इस कवच के सुधार की भरपाई की उम्मीद की जा रही है. इसका कम उपयोग एवं औद्योगिक प्रदूषण पर कार्बन डाइऑक्साइड मेथेन और कार्बन टेट्राक्लोराइड के उत्सर्जन जिसमें पेट्रोल डीजल की गाड़ियों का कम उपयोग कर इसे नियंत्रित किया जा सकता है. अब तक के किए प्रयासों में अब तक की प्राप्त जानकारी के अनुसार 2040 तक यदि हम इसी गति से इसे बचाने का प्रयास करेंगे तब शायद हम 1980 के बराबर की ओजोन परत की कवच की स्थिति में पहुंच पाएंगे. इसी तरह यदि हम लगातार प्रयास करते रहे तब उत्तरी गोलार्ध के इलाके में अंटार्कटिका क्षेत्र के ओजोन परत की क्षति को वर्ष 2066 तक हम पुरानी प्राकृतिक स्थिति में ला पाएंगे.
मानव को इस भौतिकवादी विकास में स्वयं अपने जीवन एवं पृथ्वी की चिंता करनी होगी. तब ही प्रकृति एवं ईश्वर उसका साथ दे पाएंगे.अन्यथा पृथ्वी को विनाश की ओर ले जाने के लिए मानव स्वयं जिम्मेदार होगा. उम्मीद है आप हमारी इस चिंता में शामिल होंगे और अपनी ओर से इस ओजोन कवच को मजबूत करने में सहयोग प्रदान करेंगे.
बस इतना ही …….
फिर चर्चा करेंगे किसी और विषय पर.…