छत्तीसगढ़

“मानस के राजहंस “, प्रशासक, शिक्षाविद,हिंदी के पहले डी लिट,डॉ बलदेव प्रसाद मिश्र…

वरिष्ठ पत्रकार शंकर पांडे की कलम से....{किश्त 182}

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डॉ बलदेव प्रसाद मिश्र हिन्दी के साहित्यकार, न्यायविद, लोकसेवक थे। भारत प्रथम शोधकर्ता थे जिन्होने अंग्रेजी हुकूमत में हिन्दी में ‘शोध प्रबन्ध’ पेश कर डी लिट की उपाधि अर्जित की(1939)।उन्होने ‘तुलसी दर्शन’ पर विशेष कार्य किया। लगभग 85 प्रकाशित-अप्रकाशित, कृतियाँ उनके नाम हैं। उनके साहित्य को सहेजने का कार्य पोते प्रदीप,काशी प्रसाद मिश्र (रिटायर्ड डी एसपी)कर रहे हैं,रामकाव्य चिंतक,कवि,वक्ता,प्रशासक,समाजसेवी,हिन्दी सेवक डाॅ.बलदेव प्रसाद मिश्र,उर्फ़ भाईजी की ख्याति प्रति ष्ठित साहित्यकारों में है ।अनथक अक्षरसाधक, मानस के अनुगायक के रूप में राष्ट्रपति भवन से आम जनता तक भी फैला। कुंवर चन्द्रप्रकाश सिंह ने शील के महासागर का सबसे दुर्लभरत्न माना। आचार्य भगीरथ मिश्र ने रामचरित मानस के व्याख्याकारों की सूची में रामचन्द्र शुक्ल,डाॅ. ग्रियर्सन के बराबर प्रतिष्ठा दी। कल्याणमल लोढ़ा ने उन्हें ‘आज के तुलसीदास ‘ की संज्ञा दी। डाॅ. मिश्र का जन्म 12 सितंबर 1898 को राजनांदगांव में हुआ। पितामह शिवरतन लाल मिश्र प्रतिष्ठित नागरिक थे तो पिता नारायण प्रसाद रेलवे, लोककर्म के ठेकेदार के साथ साहित्यिक अभिरुचि के थे। डॉ.मिश्र के बड़े पुत्र नर्मदा प्रसाद, न्यायिकसेवा से रिटायर हुये तो दूसरे पुत्र काशी प्रसाद मिश्र, पंचायत एवं समाज कल्याण विभाग के बड़े अधिकारी रहे। उन्होंने भी लिखने की कोशिश तो पर पिता के यश का उत्तराधिकार उन्हें मिल जाता तो कितना अच्छा होता! खैर डॉ.मिश्र ने सन 1914 में हाईस्कूल,1920 में दर्शन शास्त्र में एमए ,1921 में एलएलबी की परीक्षाएं नागपुर विश्वविद्यालय से पास कीं। 1920 के राष्ट्रीय आन्दोलन में छग के प्रभाव शाली नेता प्यारेलाल सिंह के साथ से राष्ट्रीय माध्यमिक शाला का भी संचालन किया,1922में पं.रविशंकर शुक्ल के जूनियर के रूप में वकालत शुरू की। दांव-पेंच झूठ-फरेब की अदालती दुनिया में 10 महीनों से ज्यादा नहीं टिके..!उन्हीं दिनों उन्होंने प्रसिद्ध नाटक ‘ शंकर दिग्विजय‘ लिखा।1923 में रायगढ़ रियासत में न्यायाधीश,अगले वर्ष नायब दीवान, 7 वर्षों बाद दीवान बनकर 1940 तक रायगढ़ में ही रहे। वे पूर्वी रियासती मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। रायपुर के दुर्गा काॅलेज,बिलासपुर के एस बीआर काॅलेज के संस्थापक प्राचार्य,10 वर्षों तक नागपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अवैतनिक अध्यक्ष,रायपुर में तब नगर पालिका के उपाध्यक्ष, रायगढ़,खरसिया,राजनांदगांव नगरपालिकाओं के अध्यक्ष भी रहे। मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 3 बार अध्यक्ष, बंगीय हिन्दी परिषद कल कत्ता के अध्यक्ष,दर्जनों विश्व विद्यालयों के परीक्षक, विजिटिंग प्रोफेसर, कार्य कारिणी के सदस्य के रूप में शिक्षा तथा साहित्य में उल्लेखनीय योगदान भी दिया।भारत सरकार ने डॉ मिश्र को 1953 में महाकोशल भारत सेवकसमाज का संयोजक नियुक्त किया।तब भारत के पहले राष्ट्रपति डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद के सम्पर्क में आये।उन्हें बिलासपुर का सर्तकता अधिकारी भी नियुक्त किया गया ,खुज्जी के विधायक भी रहे। डा0 मिश्र ने शार्टहैण्ड, टाइपिंग, ड्राइंग, हिंदी,संस्कृत की विशेष परीक्षाएं पास की थीं,फलित ज्योतिष, वैद्यक के प्रकांड विद्वान थे। मिश्र ने 80 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं।1934 में प्रकाशित ‘कौशल किशोर’ काव्य पर विश्वकवि रविंद्रनाथ टैगोर का आशीर्वाद मिला। राम चरित्र आधारित महाकाव्यों की परम्परा में ‘साकेत‘ के बाद दूसरी बड़ी उपलब्धि है।आचार्य ललिता प्रसाद शुकुल के शब्दों में ‘खड़ी बोली जो प्रायः अपने कड़े पन के लिये बदनाम सी समझी जाती है,उसमें भी इतनी मृदुता भर देना, उस का यथेष्ट शुद्धरूप, निर्वाह कर ले जाना उनके जैसे विद्वानों का काम है।1928 में प्रकाशित जीव विज्ञान (मानव शास्त्र पर गवेशणा त्मक निबंध) के सम्बन्ध में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पत्र लिखा – जो विषय आप की पुस्तक का है, इसविषय की कई पुस्तकें मैं उलट- पुलट चुका हूं,पर कण्टका कीर्ण कानन में मुझे कांटों और कंकड़ों के सिवा और कुछ न मिला। रत्न, कहीं थे तो वे मेरी नजरों में छिपेरहे। दोष उन ग्रन्थों का नहीं,मेरा ही था।आपकी पुस्तक के अवलोकन से मुझे अनेक तत्व रत्नों की प्राप्ति हो गई आप मेरी कृतज्ञता स्वीकार करें।आप धन्य हैं।1939 में नागपुर विश्वविद्यालय ने डॉ बलदेव मिश्र के शोध प्रबन्ध ‘तुलसीदर्शन’ पर डी. लिट. की उपाधि प्रदान की। वे भारत के प्रथम डी.लिट.थे जिन्हें अंग्रेजी के बदले हिन्दी में शोध प्रबन्ध लिखने की छूट मिली।परीक्षक आचार्य रामचन्द शुक्ल ने भी लिखा था कि वैदिक पौराणिक, भक्ति-साहित्य के विशाल भण्डार से सामग्री संकलित करके विवेक के साथ उपयोग किया है।उनका शोध- प्रबंध महान अध्वसाय, व्या पक अध्ययन का परिणाम है। ‘तुलसी’ को समन्वय वादी दार्शनिक मानकों की स्थापित मान्यता से हटकर तुलसी दर्शन की स्वतंत्र सत्ता घोषित की।उपाधि से प्रसिद्धि के सभी दरवाज़े खुले,आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी लिखा ‘तुलसी दर्शन की कापी आपने क्या भेजी मुझे संजीवनी का दान दे डाला। मैं मुग्ध हो गया, आप धन्य हैं। ऐसी पुस्तक लिखी जैसी तुलसी पर आज तक किसी ने न लिखी और न हीआशा है कि आगे कोई लिखेगा..!आपने इस विषय में जो विद्वता प्रदर्शित की है वह दुर्लभ है। मिश्रजी मैं रामायण का भक्त हूं। मुझे मेरे मन की पुस्तक लिखकर भेजी। धन्यवाद।आलोचकों ने ‘तुलसी दर्शन‘ का रामचरित्र मानस से वही संबंध माना जो लोकमान्य तिलक की ‘ गीता रहस्य ‘ का गीता से है, 1946 में प्रकाशित ‘साकेत सन्त‘ की भूमिका में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा -मिश्रजी को प्रणाम कर प्रत्यक्ष आशीर्वाद के रूप में (साकेत- सन्त) शिरोधार्य करता हूं।डाॅ0 मुंशीराम शर्मा के अनुसार- ‘साकेत‘ के पश्चात् ‘साकेत -सन्त’ का आर्वि भाव इस गांधी-युग में आवश्यक भी था। डाॅ. मिश्र ने 1952 में गवेषणात्मक ग्रन्थ ‘भारतीय संस्कृति‘ प्रकाशित हुआ। सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस भुवनेश्वर प्रसाद सिंह ने भूमिका में लिखा- मैं ग्रन्थ-कर्ता के विशाल अध्ययन, गम्भीर पांडित्य, अनुसंधान क्षमता का पूरा समर्थन करता हूं। सांस्कृ तिक विचारधाराओं के अनुसन्धित्सुओं,भारतीय संस्कृति,भौगोलिक सीमाओं के बाहर भी प्रेरणा देती रही हैं,इसके जिज्ञासुओं को मैं पुस्तक पढ़ने की प्रसन्नता के साथ सिफारिश करता हूं। ‘मानस-माधुरी ‘डाॅ.मिश्र के भारत सेवक समाज के प्रशिक्षण शिविरों में दियेगये भाषणों का संकलन है। पुस्तक की भूमिका डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखी। भाईजी की विद्वता के कायल थे। राष्ट्रपति ने लिखा कि ‘मानस पर मिश्र ने लिखकर हिन्दी, मानवता के प्रति जो कार्य किया है,सराहनीय है।उतनी ही सरलता के साथ मौलिक रूप को भी मिश्र ने अपने गहरे चिंतन, अध्ययन से सुन्दर बनाया है। राम चरित मानस का यह आलोचनात्मक अध्ययन पुरस्कृत हुआ। व्यस्त होते हुए रचनात्मकता के लिये भी समय निकाल लेते थे। उनका महाकाव्य ‘रामराज्य‘ राम के चरित्र की जीवंत कथा होने के अतिरिक्त रामयुगीन भारत का भी सजीव चित्र है। इसमें वैज्ञानिक एप्रोच, तारतम्यता है। वह मर्मज्ञ समीक्षक का कोशग्रन्थ है।4 सितंबर 1975 को डॉ बलदेव प्रसाद मिश्र ने राजनांदगांव में अंतिम सांस ली।


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