“दक्षिण मुखी सिद्ध पीठ हनुमान मंदिर सिरोली”
(धरोहर एवं पर्यटन अंक 10) पर्यावरण व धरोहर चिंतक - बीरेंद्र कुमार श्रीवास्तव

प्राचीन ऋषियों ने भारतवर्ष को “बृहस्पति आश्रम” ग्रंथ में इस तरह व्यक्त किया है —
हिमालयात् समारम्य यावत इन्दु सरोवरम् ।
त्वम् देवनिर्मित्म देशं हिन्दुस्थानम् प्रचमते ।।
अर्थात हिमालय से प्रारंभ होकर हिंद महासागर तक देव निर्मित यह देश (हिंदुस्थान) हिंदुस्तान कहलाता है.
*किवदंतियों एवं प्रथम महंत नीलकंठ महाराज के वंशज श्री राजीव लोचन से प्राप्त जानकारी के अनुसार तत्कालीन कोरिया स्टेट रुलर राजा रामानुज प्रताप सिंह देव के स्वप्न में हनुमान जी ने दर्शन दिए और उन्हें सिरौली ग्राम के इस बिहार जंगल में बुलाया. राजा साहब ने इस मूर्ति को खोजने के बाद इसे अन्यत्र ले जाकर स्थापित करने एवं। भव्य मंदिर बनाने का विचार किया, किंतु मूर्ति को निकालने का प्रयास निरर्थक रहा क्योंकि 10 –15 फीट जमीन के भीतर खोदने के बाद भी जब हनुमान जी की मूर्ति के दूसरे पैर का अंतिम छोर नहीं मिला तब वहीं सिरौली ग्राम में इसी उद्भव स्थल पर 1924 में एक मंदिर का निर्माण कराया गया. जो आज बजरंगबली का सिद्ध पीठ मंदिर बन चुका है*
जीवन की उत्पत्ति कल से ही मानव जीवन को श्रेष्ठ जीवन माना गया है. जो बुद्धि में तेज होने के कारण बलशाली और विवेकशील भी माना जाता है. इसके जीने की कला समय के अनुसार बदलती रही है. आदम युग की कल्पना करें जब मानव जानवरों की तरह अपनी भूख मिटाने के लिए फल फूल के साथ-साथ छोटे जीव जंतुओं के मांस को भी आहार में शामिल करता था जो मानव और पशुओ के एक समान लक्षणों को प्रदर्शित करता है, लेकिन इस विकास के क्रम में आपसी पारिवारिक संबंधों की मर्यादा ने मानव को पशुओं से अलग कर दिया. मानव की बढ़ती आबादी में जीवन जीने की कई पद्धतियों को खोजने प्रारंभ किया विवेकशील एवं बुद्धिमान होने के कारण जीवन पद्धति से ने मानव को संस्कार वान बनाया ताकि लोग शांति और आपसी एकता के साथ रह सके. समय काल ने इसे अलग-अलग हिस्सों में बांट दिया और अलग-अलग धर्म के अनुसार मानवीय जीवन सभ्यता संचालित होने लगी. जिसमें सार तत्व यही था कि आपस में मिलजुल कर रहो. दूसरों को कष्ट मत पहुंचाओ शांति के साथ एक दूसरे के धर्म एवं जीवन पद्धति का सम्मान करो. इसी जीवन पद्धति का एक अंश हिंदू धर्म के रूप में मानव कल्याण का पथ प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ा.
हिंदू धर्म भी जीवन जीने की एक एक पद्धती है जिसका अनुसरण करने वाले लोग भारत, नेपाल, मॉरीशस, सूरीनाम और फिजी में आज भी बहुतायत में है. वर्तमान समय में विश्व के हर देश में अपनी रोजी-रोटी एवं विद्वता के बल पर अपनी उपस्थिति हिंदू समाज ने दर्ज की है. हिंदू धर्म को वैदिक सनातन वर्ण आश्रम धाम भी कहते हैं. जिसके अनुसार इस धर्म की उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से पहले की है. हिंदू धर्म वास्तव में एकेश्वरवादी धर्म है किंतु इस धर्म में अलग-अलग उपासना पद्धतियां मत संप्रदाय और दर्शन को समेटे हुए हैं. अपनी आस्था एवं मान्यता के आधार पर कई देवी देवताओं की पूजा की जाती है इसी आस्था के तहत हम अपने सुख-दुख ईश्वर की मान्यता के प्रतीक देवी देवताओं के सम्मुख दूसरे शब्दों में उस अदृश्य शक्ति को सौंपते हैं जो इस ब्रह्मांड और पृथ्वी के साथ-साथ प्रकृति का नियंता भी है.
धर्म और आस्था से जुड़ा विशाल भारत का छत्तीसगढ़ राज्य का हिस्सा कई विषयों में महत्वपूर्ण माना जाता है. हिंदू मान्यता के अनुसार चार युगों में बँटी पृथ्वी की आयु सतयुग त्रेता द्वापर एवं कलयुग में बँटी हुई है. अभी भी निश्चित तौर पर एक युग के आयु की पुष्टि नहीं हुई है किंतु त्रेता युग के भगवान राम का इस क्षेत्र में आगमन की पुष्टि एवं “बृहस्पति आगम” ग्रंथ के श्लोक इस तथ्य को साक्ष्य बल प्रदान करते हैं कि यह देश देव आत्माओं का देश रहा है . इसी तरह सरगुजा संभाग का यह हिस्सा सुरगुंजा अर्थात देवताओं के सुरों से गूंजायमान धरती के निवास के रूप में जाना जाता है. भगवान राम का दंडकारण की ओर प्रवास से पूर्व इस देवांचल में ऋषि मुनियों से ज्ञान एवं आशीर्वाद के साथ-साथ मंत्र शक्ति से शस्त्रों को जागृत करने की कला प्राप्ति के लिए ऋषि मुनियों से मिलने भगवान राम का आना बाल्मिक रामायण में दर्ज है.
भगवान राम की शक्ति एवं कौशल की चर्चा बिना हनुमान के हमेशा अधूरी ही रह जाती है क्योंकि रावण वध के लिए गठित विशाल सेना में सहज सहृदय किंतु बलशाली देव हनुमान की भगवान राम के प्रति भक्ति और उपासना ने हनुमान को वीर हनुमान की शक्ति प्रदान की थी. मनेन्द्रगढ़ से अंबिकापुर की ओर राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 43 में 09 किलोमीटर चलने के बाद उदल कछार रेलवे स्टेशन लाइन पार करने से पहले पूर्व दिशा की ओर लगभग 1 किलोमीटर चलने के बाद सिरौली ग्राम का आकर्षण आपका स्वागत करता है. गोंड़ संस्कृति के विरासत का यह गांव आगे रानी दुर्गावती प्रतिमा की स्थापना के साथ ब्रिटिश शासन काल एवं आजादी की लड़ाई के कुछ पन्ने पलटने के लिए आपके मस्तिष्क को विवश करता है. आगे बढ़ने पर हमें हसदो नदी के पुल के पहले इसी तट पर दिखाई पड़ता है सिद्ध पीठ दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर का प्रवेश द्वार जो अभी भी लोगों के जन सहयोग से टुकड़ों में निर्मित होकर एक भव्य मंदिर की कल्पना को साकार करने की ओर अग्रसर है.
लगभग 100 वर्ष पूर्व की बात जब गांव के 95 वर्षीय बुजुर्ग रामदेवन सिंह से की गई तब उन्होंने बताया कि मेरे पिता स्वर्गीय मेघनाथ बताते थे कि विशाल जंगल से गिरा यह गांव नदी किनारे तक घनघोर जंगलों से भरा हुआ था. इन्हीं झुरमुट जंगलों के बीच एक मूर्ति का प्रकट होना गांव वालों के लिए किसी आश्चर्य से काम नहीं था लेकिन ईश्वरी आस्था ने हनुमान जी के इस मंदिर की प्रेरणा गांव वालों को दी. आठवीं तक पढ़े लिखे रामदेवन सिंह ने बताया कि वर्ष 2010 इस गाँव में खुले इस स्कूल में मेरे पिता और मैं स्वयं पड़े हैं जो इस गांव की तथा तत्कालीन शासकों की शिक्षा के प्रति चैतन्यता को प्रकट करता है. मैं चौथी तक यहां और बाद में आठवीं तक मनेन्द्रगढ़ में पढ़ा हूं. मंदिर के बारे में चर्चा में उन्होंने बताया कि गांव के लोग ही यहां इस मूर्ति को ढूंढे थे और पूजा पाठ के साथ इसकी कीर्ति आसपास क्षेत्र में फैलने लगी जो धीरे-धीरे कोरिया राजा रामानुज प्रताप सिंह देव तक भी पहुंची उन्होंने पूजा अर्चना के पश्चात इस मूर्ति को यहां से निकलकर अन्यत्र स्थापित करने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे क्योंकि इस मूर्ति का एक पैर बाहर तो है किंतु दूसरा पैर जमीन के भीतर तक धँसा हुआ है जो कहा जाता है कि पाताल लोक तक चला गया है.
. किवदंतियों एवं प्रथम महंत स्वर्गीय नीलकंठ महाराज के वंशज श्री राजीव लोचन से प्राप्त जानकारी के अनुसार राजा साहब को स्वप्न में हनुमान जी ने दर्शन दिए और उन्हें सिरौली ग्राम के इस स्थान पर बुलाया. राजा साहब ने आसपास के जंगल को काटकर इस मूर्ति को निकाला और अन्यत्र ले जाकर स्थापित करने तथा भव्य मंदिर बनाने का विचार किया, किंतु 10 –15 फीट खोदने के बाद भी जब दूसरे पैर का अंतिम छोर नहीं मिल सका तब शांत होकर वहीं सिरौली ग्राम में वर्ष 1924 25 में एक मंदिर का निर्माण कराया गया जो एक टीन सेड के रूप से मंदिर प्रारंभ किया गया. आज बजरंगबली का यह मंदिर एक सिद्ध पीठ स्थान प्राप्त कर चुका है. मनेन्द्रगढ़ सहित आसपास के आंचल के दूर-दूर तक लोग अपनी सिद्धि एवं आस्था के लिए यहां आते हैं. पुजारी जी से बातचीत में पता चला कि मेरे परदादा नीलकंठ महाराज रीवा से जाकर यहां बसे थे. यह बजरंगबली का आशीर्वाद था कि वह यहां पर टिक गए और भगवान बजरंगबली ने अपने पूजा अर्चना के लिए उन्हें स्वीकार कर यह स्थान दे दिया अन्यथा गांव वालों और बुजुर्गों के अनुसार इस मंदिर में कई लोग पहले भी पुजारी बनकर यहां रुकना चाहे लेकिन वे टिक नहीं सके अंत में मेरे परदादा को यह आशीर्वाद प्राप्त हुआ हनुमान जी की हम पर हमारे परिवार पर यह बहुत बड़ी कृपा है. तब से लेकर आज तक लगभग 100 वर्षों से हमारी पीढ़ी दक्षिण मुखी बजरंगबली की पूजा अर्चना का कार्य कर रही है और आस्थावान श्रद्धालुओं को पूजा पाठ का मार्गदर्शन करती है. परिवार के कुछ लोग पढ़ लिखकर अपने भरण पोषण के लिए शिक्षक जैसी नौकरी में भी चले गए हैं .
श्रद्धालुओं की आस्था के अनुरूप कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां हजारों श्रद्धालुओं का आगमन होता है जो मेले का आकार ग्रहण कर लेता है पुराने बुजुर्गों से यहां के मेलों की चर्चा सुनी जा सकती है जो बच्चों के खेल खिलौने मीठे पकवान के साथ ग्रामीण लोगों के रोजगार से जुड़े सब्जी भाजी एवं चावल दाल तक यहां मिल जाता था. लोग अपने-अपने घरों से बर्तनों के साथ आते, यहां खाना पकाते और 8 दिनों तक इस मेले का आनंद लेते थे. रात्रि विश्राम मे अलाव जलाए जाते. बुजुर्गों की दबी जुबान के अनुसार इस मेले में दीपावली की एक आस्था के अनुसार कौड़ी एवं जुआ खेलने के लिए भी यह स्थल काफी प्रसिद्ध था. जो ब्रिटिश रूलर राजा रामानुज प्रताप सिंह देव के समय में भी खेला जाता था. वर्तमान समय में इस पर अंकुश लगा दिया गया है पुलिस विभाग की चुस्ती से इस पर प्रतिबंध लगा पाना संभव हो पाया है अन्यथा काफी दूर-दूर से लोग जुआ खेलने यहां मेले में आया करते थे. पहले यहां 8 दिन का मेला लगता था अब यह घटकर 3 दिन का रह गया है. आस्था के इस हनुमान मंदिर में आने जाने वालों का अब ताँता लगा रहता था. अब तो अंचल में मोटरसाइकिल, कार खरीद कर लोग सबसे पहले हनुमान जी का आशीर्वाद लेने यहां जरूर आते हैं वही अपने दुकान, व्यापार के प्रारंभ के पू्र्व एवं बाद में बरक्कत के लिए सिरौली सिद्ध पीठ हनुमान जी का आशीर्वाद लेना इस अंचल में अब जरूरी माना जाता है. अंचल के लोग अपने बच्चों के मुंडन संस्कार से लेकर शादी ब्याह की मनौती भी मांगते हैं जो हनुमान हनुमान जी के आशीर्वाद से जरूर पूरी होती है. इसी आशीर्वाद के कारण इस दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर के प्रति लोगों की आज तक आस्था बनी हुई है. जन सहयोग से एक मंदिर निर्माण के साथ-साथ सांस्कृतिक मंच भी आज बन चुका है जो मेले के समय मे एक रंगमंच के रुप मे उपयोग होता है.
हंसदो नदी का निर्मल जल का बहाव भरा तट इस मंदिर की खूबसूरती और सौंदर्य को कई गुना बढ़ा देता है . लोग घंटों तक हस्तो नदी के तट पर बैठकर प्रकृति का आनंद लेते हैं. यह जरूर है कि आज इस नदी के तट पर बसे जंगल कटाव के कारण अब वीरान हो चले हैं. नदी किनारे वृक्षों के बुजुर्ग पेड़ों की छाया शीतलता प्रदान करने के साथ-साथ हमें निरोग रहने का भी संदेश देते हैं. बचपन को यादकर शांत रेत में छोटे-छोटे गड्ढे खोदकर पानी निकलना और शुद्ध पानी प्राप्त कर उसका पानी पीना, प्राकृतिक आनंद का वह हिस्सा है जो कम लोगों के स्मरण शक्ति के किसी कोने में स्थान प्राप्त कर पाता है. जीवन के शांत क्षणों में आपकी स्मृतियां इन पलों को याद कर नई खुशियां और मुस्कुराहटों के लिए प्रेरित करती रहती है. लेकिन प्रकृति को नष्ट करने वाले हाथों ने नदियों के रेत से ढके वक्षस्थल के रेत को हटाकर नदियों को अब नंगा कर दिया है और नदिया शर्म से धीरे-धीरे चिंतित होकर अब सूखने की कगार पर हैं. उनका जल ग्रहण एवं जल स्रोत समाप्त हो रहा है जो बहुत बड़ी चिंता का विषय है . लेकिन विशाल निर्माण की अंधी दौड़ में रेत को समेटने में जुड़े लोग कब सचेत होंगे यह किसी को नहीं मालूम . ऐसा प्रतीत होता है कि आर्थिक विकास की यह दौड़ कहीं मानव सभ्यता को ही न निकल जाए, और हमारे पास पश्चाताप के लिए भी जीवन शेष न रहे.