छत्तीसगढ़

पारिस्थितिकी तंत्र का बिगड़ता संतुलन, लील रहा है हमारा जीवन

वीरेंद्र श्रीवास्तव, पर्यावरण एवं धरोहर चिंतक

Ghoomata Darpan

घर के आसपास सुबह होने की दस्तक देने वाली गौरैया अब बच्चों की किलकारियां एवं छोटे-छोटे पैरों की धमक से उड़ने वाली गौरैया अब घर की दहलीज पर कम दिखाई देने लगी है. पहले सुबह-सुबह ढेकी में धान कूटने के बाद जब दादी सूपा में चावल पछोरती तब छूटे हुए कुछ धान के साबुत दाने चावल से अलग हो जाते और इसी के साथ टूटे हुए चावल के टुकड़े भी सूप से केराकर निकाल दिए जाते थे. इसी समय झुंड के झुंड गौरैया नन्हे नन्हे कदमों से धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई इन गिरे हुए चावल की खुद्दी और धान को छीलकर खाने के लिए आगे बढ़ती लेकिन सूपा की थोड़ी सी हवा के खतरे को भाग कर तुरंत उड़ जाती. तब दादी सभी दानों को पर्छी के आगे बिखेर देती. बस फिर क्या था सैकड़ो के झुंड में चिड़िया उन पर टूट पड़ती ,एक-एक दाने से अपने छोटे से पेट को भरने की जुगाड़ या कुछ दाने इकट्ठा कर घोंसले में मां का इंतजार करते बच्चों के पेट भरने के काम आती. गौरैया की यह चहलकदमी अब ना के बराबर रह गई है . क्या मेरी तरह आपने कभी सोचा कि यह गौरैया आखिर गई कहां. नई- पीढ़ी के बच्चे अभी कुछ स्थानों पर घर के आसपास गौरैया देखकर पहचान लेते हैं लेकिन यही हाल रहा तब आने वाली पीढ़ियां नहीं जानेंगी या केवल किताबों में चित्र देखकर पढ़ेंगी कि गौरैया ऐसी हुआ करती थी और कहेंगे कि घरों के आसपास इस तरह के शाकाहारी पक्षी पाए जाते थे. जिससे बच्चे भी खेला करते थे. हमने इसे प्रकृति का एक सामान्य कृत्य मानते हुए यह सोचने की आवश्यकता भी नहीं समझी कि आखिर यह गौरैया कहां चली गई. पारिस्थितिकी संतुलन के बदलते तेवर ने इस गौरैया को धीरे-धीरे निगलना प्रारंभ कर दिया है जो इसे धीरे-धीरे समाप्त कर रही है. इसी तरह ऊंचाई पर उड़ने वाले चील और गिद्ध आज समाप्त होने की कगार पर है. गिद्ध तो करीब करीब समाप्त हो चुके हैं क्योंकि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र अर्थात इकोसिस्टम के मजबूत स्तंभ माने जाने वाले यह पक्षी मृत पशुओं की गंदगी साफ करने का बहुत बड़ा काम हमारे लिए करते थे, लेकिन हमने पशुओं को अधिक दुधारू बनाने के लिए लगाए जाने वाले इंजेक्शन के प्रयोग से इन पशुओं के मांस को जहरीला बना दिया है जिसका प्रभाव मृत पशुओं के मांस का भक्षण करने वाले गिद्ध पर पड़ता है और उनकी जाति आज अब लगभग समाप्त हो चली है. छोटे-छोटे प्रयासों में हम अपने घरों की छत पर या किसी छायादार स्थान में मिट्टी के बर्तनों में पानी एवं कुछ चावल के दाने डाल दे तब यह गौरैया तथा कौवे और अन्य पक्षी कुछ हद तक बचाई जा सकेगे.  यह प्रयास हमें इस झुलसती गर्मी मे आज  से ही प्रारंभ कर देना चाहिए. यह कार्य हमारे बच्चों में पशु पझियो के प्रति अपनत्व और लगाव भी पैदा करेगा.
गिद्धराज जटायु की कहानी किसी से अछूती नहीं है रामायण ग्रंथ के अनुसार भगवान राम के वन गमन के समय जब पंचवटी से सीता का रावण ने हरण किया था तब गिद्धराज जटायु ने अपने कई योजन  की दूर दृष्टि से माता- सीता की चीख पुकार सुनी थी और उन्हें बचाने के प्रयास में  रावण से युद्ध  लड़कर घायल अवस्था में जमीन पर पड़ा छटपटा रहा था. अपनी दृष्टि से उसने लगभग 100 योजन दूर श्रीलंका मैं माता सीता को ले जाने की बात  भगवान श्री राम को बताई  थी.   भगवान राम के पहुंचने पर उसने भगवान राम को माता सीता की जानकारी देकर भगवान राम की गोद में मोक्ष प्राप्त किया था.
गिद्धराज जटायु और संपाती उन्हीं  गिद्ध प्रजाति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो हमारे बीच मृत पशुओं को अपना निवाला बनकर साफ करने और  इस पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.  एक गिद्ध आधे घंटे में एक छोटे पशु के मांस को समाप्त कर देने की क्षमता रखता है. प्रकृति ने यह दृष्टि और व्यवहार उन्हें इसी विशेष कार्य को करने के लिए दी थी किंतु हमारे व्यवहार एवं पर्यावरण प्रदूषण कार्यो ने उनके परिवार के लिए मौत की तारीख तय कर दी  है इसी के साथ-साथ  चील  जैसे पक्षी भी आज समाप्त हो रहे हैं इसका एक कारण कुछ पशुओं जैसे कुत्तों चूहों को जहर देकर मारने के प्रचलन का असर भी मृत मांस खाने वाले पक्षियों पर पढ़ रहा है. जो इकोसिस्टम के मजबूत स्तंभ है.
पुराने बुजुर्गों द्वारा बच्चों को हमेशा  शिक्षा दी जाती थी कि जूठे रोटी चावल या भोजन सामग्री किसी अलग बर्तन में रखो.  हमारी रसोई की मात्रा में गौ ग्रास और स्वान ग्रास का हिस्सा रखा जाता था.  भोजन बनने के बाद बाहर खड़ी गाय एवं कुत्ते को उसका हिस्सा दे दिया जाता था, या बाद में देने के लिए अलग  रख दिया जाता इस तरह के रखे हुए भोजन को ब्लेड कील या पिन जैसी किसी भी ऐसी चीजों से दूर रखा जाता जिसे खाकर जानवर मर जाएं या परेशान हो जाए लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल चुकी है हम कचरे के डब्बे में बची हुई रोटियां और चावल डाल देते हैं साथ ही साथ उसमें घर की गंदगी के साथ या  प्लास्टिक के पन्नी  में एक साथ डाल देने के कारण जानवर बीमार हो जा रहे हैं या मर जाते हैं.कम से कम ऐसा न करें अन्यथा मरने वाले गाय के मौत के जिम्मेदार आप ही माने जाएगे. कौन है इस सब का  जिम्मेदार कभी सोचा है आपने  पहले जानवरों के पीने के पानी के लिए पानी का इंतजाम किसी तालाब, नदी के साथ-साथ घरों के बाहर नांद में रखने की व्यवस्था थी,  जो आज समाप्त हो चुकी है. आज गाय भैंस हमारे लिए दूध देने की के यंत्र बनकर रह गए हैं हम अपनी सांस्कृतिक विरासत में गाय भैंस के प्रति स्नेह की परिभाषा को भूल रहे हैं. गाय को  माता का दर्जा अब केवल शब्दों तक रह गया है.  नए-नए इंजेक्शन लगाकर गाय का शरीर शिथिल कर दिया जाता है ताकि उसका पूरा दूध निकाल लिया जाए.उछलता कूदता कुलांचे भरने वाला  छोटा बछड़ा भी अब तंदुरुस्त नहीं दुबला पतला नजर आता है और बदलते हुए ट्रैक्टर खेती के परिवेश में यदि बछड़ा नर है,  तब उसे और इतना कम दूध मिलता है कि वह उछलता कुदता एक बलिष्ठ बैल बनकर तैयार नहीं हो पाता.  आर्थिक शोषण के लिए उपयोग होने वाले यह पशु भी इस पारिस्थितिकी तंत्र के हिस्से हैं जो हमारे खेतों को अपने गोबर से उपजाऊ बनाते हैं. खेतों से निकलने वाले घास पात से  पेट भरकर जीने वाले और खेतो को अपने गोबर से उपजाऊ बनाने वाले ये जानवर आज हमारे लिए केवल आर्थिक स्रोत बनकर रह गए हैं इससे ज्यादा और कुछ नहीं है. अब तो दूध नापने में नाप की कमी को पूरा करने के लिए स्वस्थ परंपरा के अंतर्गत दी जाने वाली पुरौनी भी समाप्त कर दी जा रही है. क्योंकि लोगों मे ईमादार होने का स्वाभिमान खत्म हो गया है.हमारी धार्मिक और  सांस्कृतिक विरासत की यह सोच भी इसी पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का हिस्सा है.


जलवायु परिवर्तन और प्रजातियों के लुप्त होने के बीच अटूट संबंध है. वैज्ञानिक दोहरे संकट की चेतावनी दे रहे हैं इसके मुताबिक आने वाले दशकों में 10 लाख जीवन की प्रजातियों के लुप्त हो जाने का खतरा पैदा हो गया है. जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चिंता आज हमारे घरों गांव और शहरों की नहीं बल्कि विश्व की चिंता है किंतु आर्थिक विकास के नाम पर हम जलवायु परिवर्तन के चिंतनीय  पहलुओं को भी नकार रहे हैं  भविष्य की चिंता को अनदेखी कर हम स्वयं इस  इको सिस्टम को नष्ट कर रहे हैं.  हमारी स्थिति ऐसी हो गई है कि हम स्वयं को इसी बिगड़ते सिस्टम में अपनेआप को  समाप्त हो जाने के लिए  धीरे-धीरे  धकेल  रहे हैं.
छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर के पास इकोसिस्टम को बचाने के लिए हुए विशाल जन आंदोलन के बाद भी बदलती सत्ता हसदो अरण्य जैसे जंगलों का विनाश कर कोयले का ओपन कास्ट से उत्खनन करना इसी आर्थिक विकास का हिस्सा है जिसमें पारिस्थितिकी तंत्र को उजड़ते हुए देखने के सिवाय हम सब मौन कुछ करने की स्थिति में दिखाई नहीं पड़ते हैं.  आर्थिक विकास की अधाधुंध दौड़ को  जीवन का पर्याय मान कर खुली खदानों के संचालन की देश के सत्ता संचालकों द्वारा अनुमति दे देना इसी तरह के इकोसिस्टम को नष्ट करने की प्रक्रिया है.गांधी जी ने कहा था कि इस पृथ्वी पर सभी की जरूरत के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद है आवश्यकता केवल इतनी है कि उसे संरक्षित कर हम अपने आवश्यकता के अनुसार उसका  उपयोग करें
कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम यूरोपीय संस्कृति के विकास को ही आधार बनाकर विकास मानक तय कर रहे हैं. जबकि  हमें  भारतवर्ष की अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विकास का ऐसा पैमाना बनाने की जरुरत है जो “गाँधी जी के सिद्धांत और विचारों को केंद्रीत कर सर्वे भववन्तु सुखिनः के साथ”     आत्मिक सुख को विश्व के लिए एक पैमाना क्यों नहीं बनना चाहते.  पशु पक्षियों को स्वतंत्र जीने का अधिकार न देकर हम उनके लिए चिड़ियाघर क्यों बनना चाहते हैं.  यह तो तय है कि आर्थिक विकास की सीमा वह  क्षितिज है जिसे आप जब भी देखेंगे आपको वह दूर ही दिखाई पड़ेगा उसका कोई अंत नहीं है केवल आर्थिक विकास से यदि मानव जीवन की खुशियां खरीदी जा सकती तब आर्थिक रूप से संपन्न राष्ट्र सबसे ज्यादा खुश होते लेकिन ऐसा नहीं है अब तो पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन का असर यह भी दिखाई पड़ रहा है कि लोग मानसिक रूप से शांतिप्रिय ना होकर चिड़चिड़े एवं गुस्सैल होते जा रहे हैं.  वर्तमान मे बच्चों की नई पीढ़ी पहले की बजाय ज्यादा तनाव ग्रस्त और गुस्सैल दिखाई पड़ती है काफी बारीकी से ध्यान देगे तब महसूस करेंगे कि अपने घरों में भी वे हमेशा गुस्सैल   व्यवहार एवं भाषा का  प्रयोग करते हैं.  भारतीय संस्कृति के वेद पुराणों में यही कहा गया है कि शक्तिशाली व्यक्ति को हमेशा शांति एवं नम्र स्वभाव का होना चाहिए लेकिन चिंता का विषय है कि जलवायु परिवर्तन मानव को स्वयं की आत्महत्या की ओर धीरे-धीरे खींच रहा है और हम अनभिज्ञता के वशीभूत उसकी ओर  अनजाने ही खींचे चले जा रहे हैं.

जलवायु परिवर्तन का सीधा असर इकोसिस्टम पर पड़ रहा है समुद्र से लेकर पशु पक्षियों एवं मानव पर इसका असर उसके व्यवहार परिवर्तन में भी दिखाई पड़ रहा है जलवायु परिवर्तन का यह बदलाव जीव जंतुओं को मौसम के अनुसार ना ढाल पाने के कारण नया बसेरा खोजने पर मजबूर कर रहा है.  यह केवल पृथ्वी के बाहरी सतह तक सीमित नहीं है समुद्र के कोरल एवं अन्य छोटे-छोटे जीव जंतु भी अब नए बसेरे की खोज में पलायन कर रहे हैं, क्योंकि कोरल पारिस्थितिकी तंत्र का पहला जीव है इसके समापन का अर्थ धीरे-धीरे मछलियों के समाप्त होने की चेतावनी है.  नवंबर दिसंबर में लाखों की संख्या में अपने देश में आने वाले प्रवासी पक्षियों का कम होना तथा पड़ाव डालने के समय में कमी, इसी ईको सिस्टम  के प्रभाव को दर्शाती है. जंगली जानवरों का शहरो की ओर पलायन भी इसी का एक सशक्त हिस्सा है. फूलों  फलों के पेड़ों को काट देना एवं पानी की कमी के कारण जंगली पशु शहर  की ओर पलायन कर रहे हैं और हमें नुकसान पहुंचाते हैं.  सच तो यह है कि वह अपना जीवन बचाने का  प्रयास कर रहे होते हैं.  बच्चों के मनोरंजन एवं जीवन की आशा रंग बिरंगी तितलियों के साम्राज्य का हिस्सा अब सिकुड़ गया है. गिनी चुनी तितलियां ही अब खेतों में दिखाई पड़ती हैं. खेतो मे डाले जाने वाले रासायनिक खाद तितली जैसे नाजुक जीव को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं. अब तितलियों को भी बाड़े में बंद कर तितली गार्डन बनाए जा रहे हैं उन्हें प्राकृतिक नहीं कृत्रिम रूप से बचाने की यह कोशिश कितने दिन और बच पाएगी यह कहना  बहुत मुश्किल है.    तितलियों  पर लेखन करने वाले  विश्व लेखक लार्सन की किताब  “हैजर्ट्स आफ बटरफ्लाई”   कलेक्टिंग (2003) में भारतीय तितलियों के सुंदरता का उसने जितना सुंदर वर्डन किया है वह अब जलवायु परिवर्तन की भेंट चढ़ चुके हैं और उनकी प्रजातियों अब खूबसूरती के साथ-साथ इतिहास के वे पन्ने बन चुके हैं जिन्हें हम कभी-कभी पलट कर देखते रहेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि भारत में इतनी खूबसूरत तितलियां भी पाई जाती थी.
चर्चा और बातचीत के इस चिंतन में मैं यदि दो चार  व्यक्तियों को भी भागीदार बना सका तब  मुझे उम्मीद है हजारों लाखों के बीच यह विचार बीज बनकर फैल जाएगा और आने वाले जलवायु परिवर्तन के कारण बदलते ईको सिस्टम के भविष्य के दुष्परिणाम को जानते हुए भी  शुतुरमुर्ग की  तरह  रेत  में  सिर  घुसाकर देखने वाले आम नागरिकों एवं देश की सत्ता चलाने वालों की आंँख खोलने का एक छोटा प्रयास होगा अन्यथा आर्थिक विकास की असीम सीढ़ियों के भंवरजाल  में फंसा जलवायु परिवर्तन तथा ईको सिस्टम का बिगड़ता संतुलन धीरे-धीरे हमारे जीवन को निगलता रहेगा और हमें इसका पता भी नहीं चलेगा.

 


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