छत्तीसगढ़पर्यटन

नींव के पत्थरों में सोया हुआ इतिहास धवलपुर

पर्यावरण व धरोहर चिंतक वीरेंद्र कुमार श्रीवास्तव की कलम से (पर्यावरण एवं पर्यटन केंद्र 22)

Ghoomata Darpan

लोक कथाओं की किवदांतियो और इतिहास की बहुत लंबी कहानी है जिसके एक-एक पन्ने पलटने पर आपकी जिज्ञासा और ज्यादा बढ़ने लगती है क्यों, कैसे जैसे प्रश्नों से प्रारंभ होकर उसके बाद क्या हुआ जैसी घटनाओं का अध्ययन सोच एवं उसे क्रमवर जोड़कर एक दस्तावेज का रूप देना ही इतिहास की पहली सीढ़ी है जो आगे कई कड़ियों में अपने प्रमाणिक दस्तावेजों के अनुसार सुधार  की गुंजाइश के साथ लिपिबद्ध कर दी जाती है. इतिहास के लेखन में आपको कई स्थानों पर लेखक की कल्पना के अंश भी मिल जाते हैं.

भारतवर्ष के इतिहास के बारे में पुराणो का महत्व सर्वमान्य इतिहास है जिसमें भारतीय पंचांग के अनुसार सृष्टि के आरंभ से एक अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 124 वर्ष और कलयुग के 5124 वर्ष तथा विक्रम संवत 2019 वर्ष बीत चुके हैं भारतवर्ष का पुराना इतिहास सत्य घटनाओं पर आधारित इतिहास था जिसे पुराण कहा जाता है किंतु यह विदेशी आक्रमण के दौरान आक्रांताओं द्वारा जला दिया गया. हमारे देश के विश्व स्तरीय पुस्तकालय नालंदा एवं तक्षशिला में मुगल आक्रमण कारियो द्वारा इसे नष्ट कर दिया गया जिससे कई ऐतिहासिक पुस्तकों सहित पुराण जैसे ग्रंथ समाप्त  हो गए. आज कुछ पुराने स्मृतियों के आधार पर या किसी विद्वान पारखी  नजरों में सहेज कर रखे गए दस्तावेज ही हमारा इतिहास बनकर उपलब्ध है. विज्ञान एवं अन्वेषण से पता चलता है कि लगभग 500 लाख पहले भारतीय उपमहाद्वीप एशिया से अलग महाद्वीप था जो कालांतर में आकर एशिया से जुड़ गया इस जुड़ाव की टकराहट से हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ किसी शुभ कार्य में अनुष्ठान के पूर्व “जम्बूदीपे भारत खंडे आर्यावर्ते  देशांतर्गते अमुकस्थाने या गांव का नाम शामिल रहता है. जो भारत की पृथ्वी पर स्थिति एवं  सुप्त कहानियों का सार है.
इस विशाल भारत के गौरवशाली ऐतिहासिक पुस्तकों में कई ऐसे पन्ने भी है जो आज उपलब्ध नहीं है यह कहानी जो छोटे-छोटे राजाओं की कहानी से प्रारंभ होती थी लेकिन उनका उल्लेख नहीं मिलता यह भी हो सकता है कि इन राजाओं की कहानियों को महत्व नहीं दिया गया लेकिन जब जंगलों पहाड़ों के बीच किसी प्राचीन मंदिर के लिए या विलेन सभ्यता के अंश आज भी दिखाई पड़ते हैं तब उसके प्रति और ज्यादा जानने की जिज्ञासा में हम उसकी तह तक जाने जाने को बाध्य होते हैं जो हमें ग्राम में अंचलों के निवासियों बुजुर्गों एवं मुंह पत्थर की जुबानी प्राप्त होती है इसी तरह की जानकारी सूक्त इतिहास के वेतन है जो हमें पढ़ने के लिए बातें करते हैं इसी तरह न्यू के पत्थरों की आवाज पकड़ने की कोशिश है धवलपुर धरोहर एवं पर्यटन स्थल की एक दास्तान.


चलिए चले पर्यटन के लिए धवलपुर. आज  हमारे साथ में इस अंचल के जानकार सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष  परमेश्वर सिंह एवं सहयोगी नरेंद्र श्रीवास्तव. हमारी यात्रा मनेन्द्रगढ़ -चिरमिरी- भरतपुर(एम. सी. बी.)  जिले के मुख्यालय मनेन्द्रगढ़ से प्रारंभ होकर साउथ झगड़ाखांड (लेदरी)  से  होते हुए आगे भौता की ओर प्रारंभ होती है.  आगे हमें झीमर नाला पुल पार  करना पड़ता है . समय के बदलाव मे  अब मरवाही तक पहुंचने के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत कई पुल बन गए हैं जिससे गांव तक आवागमन सुविधा हो गई है नहीं तो इन गांव तक पहुंचना टेढी खीर था.  झीमर नाला पार करते ही छिपछिपी गांव के पहले एक और नाला पड़ता है परमेश्वर सिंह के कहने पर हम अपनी कार इसके पुल को पार करके  रोकते हैं . नदी जैसे चौड़े पाट का यह नाला यहां एक और छोटे नाले का संगम है. इस नाले के बीच एक मजबूत इग्नियस चट्टान के ऊपरी हिस्से में बंदूक की नाल की तरह लंबी  संरचना को इंगित करते हुए परमेश्वर सिंह जानकारी देते हैं कि  किवदंती एवं मान्यता है कि धवलपुर के राजा जब अपने गढ़ी  से बाहर किसी लड़ाई मे निकले थे . इसी समय वहीं के एक नाउ  ने राजा की मौत की सूचना देकर रानी पर गलत निगाह डाली थी.  और  अंत मे रानीकुंडी मे रानी ने जलसमाधि ले ली थी.  राजा के वापस आने पर जब धटना की सूचना  मिली तब राजा इसी जंगल में छिपे नाउ  को मारने आए उस  समय बंदूक की नली इतनी गरम हो गई थी जिसके निशान आज भी इस पत्थर पर यहां दिखाई पड़ता है. घटनाओं की सत्यता चाहे जो भी हो लेकिन घटना का तारतम्य यदि पुराने राजाओं से जोड़ा जाए तो किवदंतियां इसे धारमल शाही के जमाने से  जोड़ती हैं.  इस तरह की धटनाओं की कड़ी मे  हमें यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि क्या 17वीं सदी मतलब 300 साल पहले जंगल के इस पहाड़ी नाले  के तेज बहाव के दौरान यह नष्ट नहीं हुआ होगा या 300 साल पहले क्या इस तरह की बंदूकें उपलब्ध थी. इस तरह के कई अबूझ पहेलियां की कहानी मैं उस नाई के मारे जाने और उसके नाम पर इस नउआ  नाले के नामकरण की कहानी के साथ हम आगे बढ़ जाते हैं धवलपुर की ओर.  लगभग दस कि.मी.  के मील पत्थर तक  पहुंचने के बाद भौता गांव  तिराहे  पर लगे बैरियर से बाएं मुड़कर हम आगे कोड़ा गांव पहुंचते हैं.  कोड़ा  पुलिस चौकी से आगे लगभग दो किलोमीटर बढ़ने  के बाद मुख्य मार्ग के बाईं ओर मील के पत्थर में लिखा हुआ मिलता है धवलपुर 4.3 किलोमीटर.  अपनी मंजिल मिलने की खुशी हमारे चेहरे पर प्रसन्नता की मुद्रा में दिखाई देने लगती है.  गांव में प्रवेश करने पर हमारी मुलाकात इसी गांव के निवासी शिक्षक ईश्वर सिंह से होती है. नेवरी गांव के शिक्षक ईश्वर सिंह के साथ हम गांव के कंक्रीट की सड़क होते हुए धीरे-धीरे कच्चे रास्ते पर निकल पड़ते हैं. अचानक रास्ता छोड़कर दाहिनी और उंगली दिखाकर ईश्वर सिंह हमें मोड़ते हैं. करीब 100 मीटर कच्चे मार्ग को छोड़कर हम पत्थरों के एक टीले पर जाकर खड़े हो जाते हैं.  जिसे लोग गढ़ी बताते हैं  गांव के भगवान सिंह एवं बसंत सिंह हमें यहां पहुंचते देखकर अपने पशुओं को चराते हुए यहां पहुंच जाते हैं. एक छोटे से परिचय के बाद बसंत सिंह बताते हैं कि यह   पुराने राजा की गढ़ी के पत्थरों के अवशेष है . कहते हैं कि राजा धारमल शाही का परिवार यहां रहा करता था.अलग-अलग तीन-चार  स्थान पर इन पत्थरों के ढेर यह जानकारी देते हैं कि यह गढ़ी  कई कमरों की विशाल स़रचना रही होगी. पत्थरों पर खुदाई करके  की गई कसीदा कारी यह संकेत देती थी  कि यहां इसका भव्य द्वार भी रहा होगा. भगवान सिंह चर्चा में बताते हैं कि यहां आप जैसे लोग कभी कभी यहाँ आते हैं . हाँ चुनाव के समय नेताओं का आना-जाना होता है. नहीं तो गांव में कौन आता है भइया.  चर्चा करते करते  उसने कहा कि एक बार बैकुंठपुर विधायक रामचंद्र सिंह देव (कोरिया राजवंश के पुत्र)  अपने सहयोगी नेताओं के साथ यहां आए थे उन्होंने इस गढ़ी के पत्थरों को दिखाकर अपने मित्रों को कहा था यह गढ़ी हमारे पुरखों की वह निशानी हैं जिनके हम वंशज हैं,लेकिन किसी ने इसे आगे बढा़ने हेतु नहीं सोचा.
राजा धारमल शाही की कहानी ऐतिहासिक पन्नों में 17वीं शताब्दी के राजाओं में प्राप्त होती है कोरिया राज्य की स्थापना की लंबी कहानी सरगुजा राज्य के महाराजा  के महल के बगावत से उत्पन्न होती है.  जिसमें सरगुजा महाराज के राज्य से बाहर जाने के कारण राज्य में उन्हीं की सेना के कुछ सरदारों ने बगावत कर दी और राजमहल को घेर लिया चिंतित रानी  को उनके गुप्तचर से सूचना मिली कि चौहान भाइयों की एक टुकड़ी  अपनी छोटी सी सेना सहित गांव के तालाब के पास डेरा डाले हुए हैं  ऐसी विषम परिस्थितियों में सरगुजा रानी ने क्षत्रिय परिवार की परंपरा के अनुसार एक राखी भेज कर एवं राजमहल की स्थितियों से परिचित कराकर उन्हें अपने राजमहल की रक्षा करने का अनुरोध पत्र भेजा.  साही भाइयों ने राखी स्वीकार कर महाराज के राजमहल की बगावती सरदारों  से मुक्त कराया और रानी की रक्षा की.  इस लड़ाई में  कुछ शाही  सैनिक भी मारे गए.
पुराने समय में दक्षिण जाने का मार्ग सरगुजा एवं मिर्जापुर से होकर जाता था. उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी मंदिर के धार्मिक यात्रा करके वापस लौटते समय मैनपुरी के चौहान वंशी दो भाई दलथंबन शाही के साथ सरगुजा में पड़ाव डाले हुए थे उनके साथ एक छोटी सी सेना की टुकड़ी थी जो रास्ते में अपनी सुरक्षा के लिए साथ लेकर चलते थे.  एक समृद्ध राज्य देखते हुए उन्होंने सुरक्षित स्थान समझकर यहां पड़ाव डाल दिया था. तालाब के किनारे पड़ाव डाले हुए इस शाही परिवार को सरगुजा राजमहल को बचाने का एक मौका मिला . सरगुजा राजा के वापस लौटने पर जब राजा को बगावत एवं शाही बंधु की वीरता की सूचना मिली तब राजा ने उन्हे धन्यवाद देते हुए राज्य के उत्तरी इलाके झिलमिली का एक हिस्सा देकर उन्हें यही बस जाने का प्रस्ताव दिया जिसे बड़े भाई  दलथंबन शाही ने इसे स्वीकार कर लिया एवं रेड़ नदी के किनारे कसकेला गांव में अपना पहला निवास स्थान बनाया.  रेड़ नदी के दूसरी तरफ की भूमि पर राजा बालेन्द का राज था जो सीधी मड़वास का रहने वाला था इसी राजा बालेन्द द्वारा कुदरगढ़ में पहाड़ी पर मंदिर बनवाया गया था जो आज 350 साल बाद लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है.  जंगलों के बीच इस देवी मंदिर को यहां के आदिवासी एवं चौहान राजा के वंशजों के बीच काफी मान्यता है.  उसी समय से इस देवी के मंदिर में चली आ रही पशुबली प्रथा चली आ रही है जो उस समय शौर्य का प्रतीक मानी जाती थी.  समय के बदलाव के साथ इस बली प्रथा को समाप्त करने की मांग श्रद्धालुओं द्वारा हमेशा की जाती रही है .

दलथंबन साही कसकेला गांव में निवास करते हुए धीरे-धीरे अपनी सेना मजबूत कर राजा बालेन्द पर चढ़ाई कर दी और बालेन्द को हराकर उनके राज्य के रेड़  नदी के पार से जुड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया. रानी के भैया होने के कारण यह स्थान आगे भैया स्थान कहलाया. आज भी उनकी पीढ़ियां के लोग यहां भैया बहादुर कहलाते हैं. दलगंजन साही इस क्षेत्र में अपना शासन स्थापित कर चुके थे.  कुछ दिनों शांति से रहने के बाद धारमल साही ने एक स्वतंत्र राज्य बनाने की विचार से दक्षिणी क्षेत्र की ओर कूच  किया और चिरमी (वर्तमान चिरमिरी) क्षेत्र के कोल  राजाओं के ऊपर आक्रमण कर इस स्थान पर अपना कब्जा जमा लिया.
प्राप्त जानकारी के अनुसार  17 वीं सदी से पूर्व कोल राजा और गोंड़ जमीदारों ने अपने संयुक्त सैन्य बल  शक्ति से  राजा बालेन्द  को दक्षिणी कोरिया के क्षेत्र से भगा दिया था और कोल राजाओं ने यही 11वीं पीढ़ी तक राज्य किया.  कोरियागढ़ की पहाड़ी पर उनकी राजधानी थी जहाँ आज भी उनके गढ़ी के भग्नावशेष  प्राप्त होते हैं यहां पर एक बावली भी है.  कुछ लोगों के मतानुसार उनकी राजधानी कुछ दिनों बचरा पोंड़ी में  भी रही है यहीं पर एक मिट्टी का टीले को  लोग कोल राजाओं का निवास बतलाले है . इन्हीं कोल राजाओं से संधर्ष के दौरान तत्कालीन भीषण जंगलों पहाड़ों के स्थान पर रहते हुए राजा धारमल साही धवलपुर जा पहुंचे,  जो हसदो नदी के किनारे था तथा यहां से आसपास निगरानी रखी जा सकती थी.  इसी के पास छिपीछिपी गांव भी था जो सेना के छिपने के काम आता था.  यहां से राज्य के चारों तरफ सुरक्षा व्यवस्था बनाने के लिए अनुकूल स्थान था.  अतः धारमल साही ने धवलपुर में अपने निवास के लिए पत्थरों की एक गढ़ी बनवाई जिसके भग्नावशेष पत्थर आज भी धवलपुर में दिखाई देते हैं.  इसी  के आगे पानी की व्यवस्था के लिए एक पड़ा तालाब भी बनवाया गया था जिसमें कुछ स्रोतों से पानी आता था एवं पर बरसात का पानी भी इकट्ठा होता था.  गढ़ी एवं तालाब के रास्ते  के बीच एक चौकोर पत्थर से बंधी 4 फुट लंबी चौड़ी एवं 10 फीट गहरी संरचना दिखाई पड़ती है इस तरह के और संरचनाओं की बात कही  गई है जो मिट्टी से पट गई है लेकिन एक स्थल आज भी यहां दिखाई देता है. ग्रामीणों का कहना है कि यह एक कुआँ है लेकिन इतनी छोटी संरचना कुआँ कहना उचित प्रतीत नहीं होता . भगवान सिंह ने बताया की कुछ दिन पहले यहां नीचे कोई खजाना होगा ऐसा सोचकर कुछ चोरों ने इसकी खुदाई की.  लेकिन सुबह जानकारी मिलने पर  देखा गया कि खुदाई के बाद  25-20 फीट नीचे लोहे की जंजीरों से यह स्थान ढका हुआ मिला.  जिसे चोर  तोड़ नहीं सके.  इस प्रकार  मजबूत जंजीर मिलने से ऐसा प्रतीत होता है की सुरक्षा की दृष्टि से राज परिवार की महिलाओं को तालाब तक आने जाने का यह सुरंग मार्ग की हो सकता है जिसमें हवा के प्रबंध के लिए इस तरह के छोटे-छोटे खिड़की नुमास्थल बनाए गए थे.  यह संरचना इस गढ़ी के अवशेष के कुल प्रश्नों के उन पन्नों को इंगित करती है कि –
* क्या इस घड़ी के नीचे कुछ गुप्त सुरंग द्वारा थे जो उनकी सुरक्षा से जुड़े हुए थे .
* उसे समय गढ़ी बनाने के लिए पत्थरों की जोड़ाई कैसे की जाती थी.
* 300 वर्ष पहले इस बियाबान जंगल में कौन सी सभ्यता एवं परिवार यहां रहते थे यह तय है कि राजा की गढ़ी के आसपास  संपन्न परिवारों की बस्तियां भी रही होगी वे कहां गई।
* क्या इस गढ़ी के नीचे से कोई रास्ता इस तालाब या झील तक जाता था.
*क्या आसपास के क्षेत्र में ्स्थित रानीकुंडी, छिपछिपी एवं चिरमिरी के रानी सती मंदिर के बीच इस गढ़ी का कोई संबंध है.
इन सभी स्थानों पर प्राप्त पत्थरों की एकरूपता कोई कहानी जोड़ती है.  इस तरह के कई प्रश्न के उत्तर और वास्तविकताओं की परतें इससे जुड़े शोध संस्थान आगे आकर कर पाएंगे. आज इस स्थान पर उनके बारे में जानने की पहल भारतीय सर्वेक्षण विभाग या छत्तीसगढ़ पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग को करनी होगी अन्यथा इस धरोहर के आसपास की भूमि में अब गांव वालों द्वारा कब्जा किया जा रहा है.  गढ़ी के नक्काशी दार पत्थर लोग अपने घरों में या मंदिरों एवं कुआँ के पास कपड़ा धोने के लिए उपयोग कर रहे हैं.
गांव के बाहरी हिस्से में इस गांव की बहुल आदिवासी जनजाति के द्वारा एक बूढ़ादेव का मंदिर और कंकाली  काली माता का मंदिर निर्माण कर लोगों में आस्था एवं रचनात्मक जीवन की यात्रा का संदेश देने का प्रयास किया गया है. मानव स्वभाव अपनी भक्ति के माध्यम से अपनी इच्छाओं को ईश्वर के सामने व्यक्त करता है यह मंदिर भी लोगों को सही मार्ग पर चलने का  एक माध्यम है. इतिहास के पन्ने में कैद इस  धारमल साही की गढ़ी के लिए स्थानीय प्रयासों में ग्रामीणों से चर्चा के दौरान हमारे द्वारा कुछ सुझाव दिए गए हैं कि ग्राम पंचायत द्वारा एक बोर्ड लगाया जाए जिसमें 300 साल पुराने राजा “”धारमल शाही  की गढ़ी”  लिखा हो एवं यहां तक पहुंचाने के लिए रास्ता बनाया जाए जो  बारहमासी पहुंच के योग्य हो.  इसके विकास के लिए जिलाधीश एवं कलेक्टर को इस स्थल के विकास एवं पुरातात्विक खोज के लिए एक पत्र लिखा जाए जिसमें छत्तीसगढ़ पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग के सहयोग से इसे संरक्षित करने तथा पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का प्रयास किया जाए.


वापस लौटते हुए जब हम तालाब के पास पहुंचे तब इसी तालाब के सामने इसके जीर्णोद्धार के लिए  के लिए लगभग एक करोड़ खर्च करने की योजना का बोर्ड दिखाई पड़ा. लेकिन  तालाब की इतनी बड़ी योजना का उपयोग लगभग शून्य है एक करोड़ खर्च करने के बाद  भी यदि मछली पालन की बड़ी योजनाएं भी गांव को समृद्धि के रास्ते नहीं दे सकी हैं. ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन को देखकर शासन की योजनाओं पर कई प्रश्न चिन्ह लगते हैं जिनके समाधान के रास्ते स्थानीय पंचायत से होकर निगरानी करने वाली जनपद पंचायत एवं शासकीय इकाइयों के कार्य प्रणाली पर उंगली  उठाती  है.
धवलपुर  पहुंचने के लिए आपको मनेन्द्रगढ़ से लेदरी होते हुए भौता से मुड़कर कोड़ा तक पहुंचना होगा. यही से 2 किलोमीटर आगे मुख्य मार्ग पर धवलपुर गांव का मील का पत्थर दिखाई पड़ता है कोरिया जिले के बैकुंठपुर से खड़गवां के रास्ते देवाडांड़ पहुंचकर भौता रास्ते में कोड़ा पुलिस चौकी से पहले धवलपुर पहुंचा जा सकता है.  बैकुंठपुर से यह लगभग 45 किलोमीटर दूर होगा एमसीबी जिले का यह पर्यटन केंद्र हमें हमारे ऐतिहासिक पक्षों से जोड़ते हैं.  जो मानव जीवन की सभ्यता एवं संघर्ष की ऐसी घटनाएं कहते  है जिसे जानने की हमें जरूरत है जिज्ञासा एवं शोध परक इस गढ़ी को देखने आप अपने परिवार के साथ एक बार जरूर जाएं और  राजाओं के ऐसे संघर्ष से जुड़ी हमारी सभ्यता के पूर्वजों की कहानियों के उस अंश से परिचित हो , जो आज  हमारे लिए आज भी गौरवशाली विषय है.
बस इतना ही फिर मिलेंगे –
पर्यटन के किसी अगले पड़ाव पर …..


Ghoomata Darpan

Ghoomata Darpan

घूमता दर्पण, कोयलांचल में 1993 से विश्वसनीयता के लिए प्रसिद्ध अखबार है, सोशल मीडिया के जमाने मे आपको तेज, सटीक व निष्पक्ष न्यूज पहुचाने के लिए इस वेबसाईट का प्रारंभ किया गया है । संस्थापक प्रधान संपादक प्रवीण निशी का पत्रकारिता मे तीन दशक का अनुभव है। छत्तीसगढ़ की ग्राउन्ड रिपोर्टिंग तथा देश-दुनिया की तमाम खबरों के विश्लेषण के लिए आज ही देखे घूमता दर्पण

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button